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कर्म प्रारंभ करनेकी अवस्था
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( विपत्ति हटाने का उपाय ) परीक्ष्य तार्या विपत्तिः ॥ १३४ ॥
विपत्ति ( अर्थात् सफलता के मार्गके विघ्न ) को विचारसे हटाना चाहिये ।
विवरण - विचार सर्वशक्तिमान पदार्थ है । विपत्ति विचारशीलका कुछ नहीं बिगाड़ सकती । मनुष्य जहां कहीं अपनी सफलता में विघ्न पडता देखे वहीं वीरता के साथ अपनी बुद्धि तथा शक्तिको परीक्षामें झोंक दे और देखे कि वह इस विपद्वारणमें क्या कुछ नहीं कर सकता ?
विपत्ति मनुष्यका असाधारण मित्र है । संसारमें आजतक जितने महापुरुष हुए हैं सब विपत्तियोंकी कृपाके शुभ परिणाम हैं। यदि उनके जीवनों में विपत्ति न माई होती तो उनके गुणग्राम संसारको विदित हो न हो पाते और वे लोग संसार के लिये अपरिचित ही रह जाते । विपत्तियोंने ही संसारको महापुरुषोंसे सम्पन्न बनाया है । ओ मानव ! तुम अपनी विपत्तियोंके विषय में इस प्रकार सोचा करो कि तुमपर जो यह विपत्ति आई है वह यों ही नहीं आगई । वह तुम्हारे विधाताकी सदिच्छा अर्थात तुम्हारी स्वरूपसंरक्षक विजयेच्छा से आई है । वह तुम्हें विपद्वारणकी कला सिखाने और सिखाकर तुम्हें भी विघ्नविजेता महापुरुषों की श्रेणीमें खडा कर देने के लिये भाई है । विपत्ति नामवाले ऐसे परमदितैषी मित्र से जी चुराना अपना ही कल्याण करना है । मानवजीवनकी सफलताका रहस्य वीरता के साथ विपत्तिका साम्मुख्य करने में ही छिपा है ।
( कर्म प्रारंभ करने की अवस्था )
स्वशक्तिं ज्ञात्वा कार्यमारभेत ॥ १३५ ॥
अपनी शक्तिके विषय में पूरी तथा सच्ची जानकारी पाकर, उसके विषय में किसी प्रकारके मिथ्या विश्वास में न रहकर काम प्रारंभ करे ।