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चाणक्यसूत्राणि
कलंकित था । इसलिये उसने चाणक्यको अपने ऊपर विनाशक प्रहार करने के लिये विवश कर डाला । भारतका प्रत्येक देशद्रोही चाणक्यका विनाश्य शत्रु था। जब पर्वत ने सिकन्दरसे संधि कर ली थी या करनी चाही थी. तबसे ही पर्वतक चाणक्य के मनसे उतर चुका था। इसीसे उसने उसके शक्तिशाली होते हुए भी उसे अपनी किसी भी महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय योजनामें सम्मिलित नहीं किया था।
उसके मन में उसके प्रति अविश्वास पैदा हो चुका था। यह भारतके भाग्य की बागडोर किसी भी भवस्था में उसके हाथों में जाने देने में भारतका कल्याण नहीं देख रहा था। साथ ही वह यह भी समझ रहा था कि पर्वतकके साथ चन्दालकी प्रतिद्वन्द्विताके भको उठ जाने देना भयंकर राजनैतिक भूल होगी। इस भूलको कार्यान्वित होने देने से देशके भीतर संग्राम छिड़ जायगा । इसीलिये उसने सिकन्दरको परास्त तथा विध्वस्त करने के प्रयत्नों के साथ ही साथ पर्वतकको मगध सिंहासनका मिथ्या लोभ देकर उसे अपने अखिल भारतीय उद्देश्यकी सिद्धि का बहायक बननेके
लिये ठगा।
परिस्थिति गूंगी नहीं होती । वह सूझ बूझ वालोंको स्वयं ही सब कुछ बताने लगती हैं। सिकन्दरको पराजित करने में चन्द्रगुप्त ने जो महत्वपूर्ण भाग लिया था और पश्चिमोत्तर भारत के विद्रोही गणराज्योंका नेतृत्व करके सफलताको अपनी मुट्ठीमें बन्द कर लिया था, उसके कारण भारतीय राज. नैतिक गगनमें चन्द्रगुप्त का प्रभाव अपने आप दिन रात बढता जा रहा था। पर्वतक चन्द्रगुप्त के इस महत्वको देखकर अपने मगधाधिप बनने के उद्देश्य के प्रति मन ही मन शंकित होने लगा था। इधर तो चाणक्यको पर्वतकमें अविश्वास था और उधर पर्वतकके मनमें चन्द्रगुप्त के शौर्य-वीर्य-रणकौशल तथा सिकन्दरको मिटा डालनेके महान् यशके कारण उसे पश्चिमोत्तर भार. तीय गणराज्यों में मिली प्रतिष्ठाके संबन्धमें भयंकर ईा हो चुकी थी। चन्द्रगुप्त तथा पर्वतकके मनों में एक मान्यन्तरिक संघर्ष जिसे भाजकी भाषामें