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प्रसंगोचित आलोचना
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नन्देर्विमुक्तमनपेक्षितराजवृत्तैरध्यासितं च वृषलेन वृषेण राज्ञाम् । सिंहासनं सदृशपार्थिव सत्कृतं च
प्रीतिं त्रयस्त्रिगुणयन्ति गुणा ममैते ॥ ( मुद्राराक्षस ३ -१८ )
मगधका सिंहासन राजचरित्र से पतित हो जानेवाले नन्दोंसे छुड़ा लिया गया, उनके स्थान में राजर्षभ चन्द्रगुप्त मौर्य अभिषिक्त कर दिये गये । अर्थात् उस रिक्त राजसिंहासन पर धीरोदात्तत्व आदि महाराज गुणोंसे युक्त चन्द्रगुप्तको बैठा दिया गया। मेरे ये नन्दोद्धरण चन्द्रगुप्ता-भिषेचन तथा योग्य व्यक्तिको राजसिंहासन पर भारूढ कर देनेवाले तीन गुण मेरे हर्षको तिगुना बना रहे हैं। मैंने अपने मनमें भारतको एक साम्राज्यका रूप देने, चन्द्रगुप्तको भारत सम्राट् बनाने, तथा नन्दको उखाड फेंकनेका जो संकल्प किया था, वह मेरे बुद्धिकौशल्यसे आज पूरा हो गया । यही मेरे आनन्दातिशयका कारण है । तात्पर्य यह है कि अमात्य राक्षसने बुद्धिमान होते हुए भी अपने आपको कुछ ऐसी परिस्थितियों में फँसा रक्खा था कि उसे चाणक्यका महत्वपूर्ण प्रस्ताव विवशता के साथ अस्वीकार कर देना पडा ।
चाणक्यके पास तो अखिल भारतीय दृष्टि श्री । वह तो भारतकी समस्त परिस्थिति को समझकर उसे एक शक्तिशाली साम्राज्य बना देने में विघ्न बननेवाले या सहायक बननेको प्रस्तुत न होनेवाले प्रत्येकको देशद्रोही मानता था और उसे मिटा डालने पर तुला बैठा था । भारतके प्रति उसकी राष्ट्रीय कर्तव्यबुद्धिने उसे ऐसा करनेके लिये विवश किया था। सिकन्दरके विनष्ट हो चुकने के पश्चात् पंचनद नरेश पर्वतकने जिसे गुरुराज भी कहा जाता था, मगधका सिंहासन लेनेका संकल्प किया जिसके लिये उसे चाणक्य की ओरसे अाश्वासन मिल चुका था। यह स्थिति चाणक्यकी भारतीय साम्राज्य कल्पना तथा सम्राट् कल्पना में बाधा डालनेवाली थी । समग्र भारतकी ओरसे सोचनेवाले चाणक्य के राष्ट्रचिन्तक न्यायालय में पर्वतक देशद्रोही के रूप में ३६ ( चाणक्य . )