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चाणक्यसूत्राणि
पैदल मगध जाकर मगधेशके मंत्री सुबुद्धिशर्मा से जिसका उपनाम अमात्य राक्षस था, भारत के इस महान् संकटमें सहयोग माँगा था ।
सुबुद्धिशर्मा शत्रु संहार में भीषण पराक्रमी होनेके कारण अमात्य राक्षस उपनाम से प्रसिद्ध था, संस्कृत भाषा के माध्यम से शिक्षा देनेवाले तक्षशिला के विश्वविद्यालयका चाणक्यका समकालीन विद्यार्थी था । देशप्रेमी होने के नाते दोनोंको विद्यार्थी जीवन में ही बन्धुत्व हो गया था । चाणक्यने अमात्य राक्षसको इस भाँति समझाना चाहा था कि इस समय पश्चिमोत्तर भारतकी रक्षा मगधकी ही आत्मरक्षा है । यदि इस समय मगधका सिंहासन मगध के कल्याणको समग्र भारतके कल्याणसे अलग मानकर उदाप्लीन रह गया तो यह उसका राजनैतिक प्रमाद और मरण होगा । इसलिये होगा कि सिकन्दर भारतके असंगठित गणराज्योंके पारस्परिक विरोधोंकी निर्बलतासे लाभ उठाने के लिये सबसे पहले मगधको ही अपनी लूटका क्षेत्र बनायेगा । अमात्य राक्षस ! तुम समझ रखना, यदि तुमने मेरा सुझाव न माना तो तुम्हारा यह नन्दराज्य जिसकी रक्षाकी संकीर्ण दृष्टिसे आज तुम्हें भारत रक्षा नामवाली बृहत्तम दृष्टिसे वंचित कर रही है, स्वयं भी लुप्त हो जायगा और भारत के भी विध्वस्त होनेका कारण बन जायगा ।
अमात्य राक्षस राजा नन्दका केवल मंत्री ही नहीं था उसका प्रगाढ स्नेही भी था । उसका स्नेह कर्तव्य पालनकी सीमा लाँघ कर मोदका रूप ले चुका था । इस कारण वह नन्दकी देशद्रोहीकी निष्क्रियता के विरुद्ध चाणक्य के प्रस्तावको न मान सका । इसलिये न मान सका कि राजा नन्द ( मुद्राराक्षस ३-१८) चाणक्यके शब्दों में विलासी तथा अत्याचारी राजा था। इसी कारण वह प्रजाकी घृणाका पात्र बन चुका था । अमात्य राक्षस उसे उसके दुर्गुण त्यागने के लिये विवश नहीं कर सका जो प्रधानमंत्री होने के नाते उसका अत्यावश्यक कर्तव्य था । जब वह उसके समझानेसे नहीं माना था तो उसे उससे असहयोग करने का दबाव डालकर उसको सुधारना चाहिये था ।