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चाणक्यसूत्राणि
इस सूत्रका अभिप्राय नहीं है । किन्तु मनुष्यों का ध्यान सच्ची ऋजुताकी
ओर आकृष्ट करके कापटिक ऋजुताके मूलोच्छेद करनेका मार्ग दिखाना ही इस सूत्रका एकमात्र अभिप्राय है ।
पाठान्तर-ऋजुस्वभावः परिजनो दुर्लभः।
ऋजुस्वभाववाले सेवक प्रजावर्ग तथा पारिवारिक लोग दुर्लभ होते हैं। ऐसे लोग किसी भी राष्ट्र संस्था या परिवारके प्राण तथा सौभाग्य होते हैं। ये मानवसमाजके सामने अपने व्यावहारिक जीवन द्वारा उसके जीवनका भादर्श उपस्थित करदेते हैं। किसी राजाके ऐसे राजकर्मचारी हों, किसी समाजमें ऐसे लोग हों: किसी परिवारके पारिवारिकोंमें ऐसे स्वभाववाले व्यक्ति हों तो उसकी यशोवृद्धि के साथ साथ कार्यसिद्धि भी अवश्यंभाविनी होती है । जिस राज्यमें ऐसे सेवक नहीं, जिस समाज में ऐसे लोग नहीं, जिस परिवारमें ऐसे सदस्य नहीं, उसके सब काम विपत्तियों से घिरे रहते हैं।
मातापिता गुरुर्भार्या प्रजा दीनाः समाश्रिताः ।
अभ्यागतोऽतिथिश्चाग्निः पोष्यवर्ग उदाहृतः॥ माता पिता गुरु पत्नी प्रजा दीन आश्रित अभ्यागत मतिथि तथा अग्नि ये सब परिजन कहाते हैं।
यह समस्त विश्व एक विराट परिवार है । प्रत्येक मानव इस विराट परिपारका पारिवारिक है। उसे अपने इस विश्वपरिवारमें अपना अहंकारी मापा खोकर ऋजुतासे व्यवहार करना चाहिये ।
(साधुपुरुषोंकी अर्थनीति ) अवमानेनागतमैश्वर्यमवमन्यते साधुः ॥१६०॥ साधु अर्थात् सत्यनिष्ठ कर्तव्यपालक ऋजु व्यक्ति वह है, जो अपनी साधुतापर कलंक लगा देनेवाले उत्कोच आदि गर्हित ढंगोंसे आनेवाले ऐश्वर्यको तृणके समान अस्वीकार करदेता है।