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चाणक्यसूत्राणि
मनोंमें इनकी समाजसेवाको अपनानेकी प्रवृत्ति पैदा कर रही है ? यह निश्चित है कि इन दोनोंकी देशसेवकताको जान लेने या इन दोनोंको किन्हीं रंगमंचों के रूपमें देख लेनेमात्र से भारतवासियोंकी देश सेवक बन जाना संभव नहीं है । निश्चय ही इन लोगोंकी साहित्यसेवाका सार्वजनिक कल्याणके साथ कोई सम्बन्ध दिखाया जाना चाहिये था जो दिखाया नहीं गया ।
हम अपने देश के साहित्यिकोंसे पूछना चाहते हैं कि आप लोग चाणक्य चन्द्रगुप्तसम्बन्धी जिस सत्यको प्रकाशमें लाये हैं उसे समाजोपयोगी क्रियात्मक रूपमें पहले तो समाज के सामने उपस्थित करना और फिर उसे क्रियात्मक रूप देना भी आपका ही कर्तव्य है या नहीं ? या इसके लिये देशको अलग कोई प्रबन्ध करना होगा ? यदि आप लोग उसे क्रियात्मक रूप देनेके साथ अपना कोई संबन्ध रखना नहीं चाहते तो हमें कहने दीजिये कि आपकी साहित्यसेवा निर्वीर्य और निष्फल है । वास्तविकता के संसार में किसी सत्यको अनुपयोगी रद्द जाने देकर उसे केवल प्रकाशमें ले आनेवाली फल्गु साहित्यसेवाका कोई मूल्य नहीं है । साहित्यसेवा ऐसी होनी चाहिये कि वह फलप्रसू हो, और वह जिस सुपुप्त समाजको लक्ष्य में रहकर की गई हो उसे झकझोरकर जगाकर खडा कर दे । सब ही उसे साहित्यसेवाका यश दिया जा सकता है ।
बरसाती कीडोंके समान साहित्यसर्जन कर देना मात्र साहित्यसेवा नहीं है किन्तु देशके मनको दबा बैठनेवाले अज्ञानपर शस्त्रक्रिया करके देशको मानसिक दृष्टि से नीरोग बननेका अवसर देना ही साहित्यसेवाकी धन्यता है । किसी सत्यको समाजोपयोगी बना देनेपर ही साहित्यिक साहित्यिक कहानेका अधिकारी बनता है । साहित्यसेवीका मुख्य काम किसी सत्यको समाजोपयोगी बना देना ही है। सच्चा साहित्यसेवी वही है जो समाजका अच्छेद्य अंग है | सच्चे साहित्यसेवीको समाजके हानिलाभ तथा मानसिक उत्थान पतन से हर्ष और विषाद दोनों होते हैं और इसीलिये वह अपने समाज में