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चाणक्यसूत्राणि
सुदृढ रूप से संगठित हो सकती है। जनता सुदृढ रूपसे संगठित होकर ही
ही राजाको बलवान बनाने में समर्थ होसकती हैं । जो राष्ट्र उन्नति करना चाहे उसे चाहिये कि वह अपने व्यक्तियोंमें उत्साह भर देनेकी योजना बनाये |
प्रभवः खलु कोशदण्डयोः कृतपंचांगविनिर्णयो नयः । स विधेयपदेषु दक्षतां नियति लोक इवानुरुध्यते ॥ अभिमानवतो मनस्विनः प्रियमुचैः पदमारुरुक्षतः । विनिपातनिवर्तनक्षमं मतमालम्बनमात्मपौरुषम् ॥
( विक्रम ही राजधन ) विक्रमधना राजानः ॥ १८३ ॥
ज्ञानदीप्त तेजस्विता ही राजाका धन है ।
विवरण -- ज्ञानदीप्त तेजस्विता ही राजाके प्रजारंजनका अव्यर्थ साधनरूपी अक्षय धन है । राष्ट्र-प्रबंध संबंधी विचारोंकी प्रखरतारूपी प्रदीप्त ज्ञानसूर्य ही राजाका सच्चा तेज या विक्रम है। ज्ञानी राजा ही सच्चे ऐश्व से सम्पन्न राजा है । अज्ञानी राजा प्रजाकी घृणाका पात्र होजानेके कारण राजसिंहासनारूढ दीखनेपर भी राज्यभ्रष्ट है । जैसे पैसा साधारण मनुष्यका भौतिक साधन समझा जाता है, इसी प्रकार सत्यरूपी विक्रम ही विजिगीषु राजाका धन है। सच्चा विजिगीषु राजा प्रजाके चित्तपर अपने सत्यका प्रभाव डालकर उसके हृदयका सम्राट् बनजाता है 1 सच्चे विजिगीषुका सत्यधनसे धनवान होना अनिवार्य हैं । सत्यद्दीन राजा प्रजाकी घृणाका पात्र तथा उसके प्रेमसे वंचित होकर अंत में राज्यसे भी च्युत होजाता है ।
( आलस्य से विनाश )
नास्त्यलसस्यैहिकामुष्मिकम् ॥ १८४ ॥
कार्यमें अनुत्साही अकर्मण्य मन्दमति आलसीको वर्तमान तथा भविष्यत्कालीन सफलता नहीं मिलती ।