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चाणक्यसूत्राणि
क्योंकि राजनीति ही समस्त शास्त्रों तथा धौकी सुरक्षाका सुनिश्चित समाश्वासन है, इसीलिये ज्ञानकर्म समुच्चयवादी मार्य चाणक्य ने अपने राष्ट्र को राजनीति सिखाना ही अपने जीवनका मुख्य लक्ष्य बना लिया था। आर्य चाणक्यकी राजनीतिका सारांश समाजको इस प्रकार सुशिक्षित करना है कि वह अपनी राजशक्तिको केवल उन लोगों के हाथमें रहने देनेका सुनिश्चित प्रबन्ध करके रक्खे, जो अपने आपको समाजहितके सुरत बन्धनों में बांध रखने में न केवल हर्ष और गौरव अनुभव करते हों प्रत्युत इसीको अपना महोभाग्य भी माने ।
समाज ही व्यक्तिका विकासक्षेत्र है । जहाँ समाज नहीं है वहां व्यक्तियोके पास सामाजिक कर्तग्य नहीं हैं । समाजहीन लोग क्षुद्र स्वार्थों में उलझे पडे रहते हैं । असामाजिक व्यक्तियोंके प्रमादसे उनके समाजके हितको अनधिकारी लोग अपने व्यक्तिगत स्वार्थीका साधन बनानका अवसर पा लेते हैं और परिणामस्वरूप लोगोंके व्यक्तिगत स्वार्थोकी भी अकथनीय दुर्गति होती है।
समाजचिन्ताके प्रसंगमें यह जानना अत्यावश्यक है कि ग्राम ही समा. जके निर्माता हैं, नगर नहीं। नगर तो समाजहीन ( परस्पर सम्बन्धहीन ) संस्था हैं। नगरोंका निर्माण भोगी राजाओं के स्वार्थासे हुया है और होता है । भोगलक्ष्यवाली राज्य संस्थायें नगरों को तो बढावा देतो चली जाती हैं और समाजरचनाके स्वाभाविक क्षेत्र ग्रामों की ओर दुर्लक्ष्य करके उन्हें उजडने और घटते चले जाने के लिये विवश करके रखती है। नगरोंको समाज न कहकर ' समज' कहा जा सकता है। समाज केवल उस मानव. समुदायका नाम है जो सम्पदविपदमें परस्पर सहानुभूति रखता है । एक दूसरेके विपन्मोक्षमें सहायक बनने का सरसाहस न करने वाले असहाय पशुओका साहसी मानवसमूह समाज कहलानेका अधिकारी नहीं है। उसे तो पशुसमूहके समान ' समज' कहना ही उपयुक्त है।
ग्राम ही सामाजिकताकी स्वाभाविक जन्मभूमि है। सामाजिकताकी स्वाभाविक जन्मभूमि ग्रामों में उत्पन्न होनेवाला मानवसमाज ही समाज.