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चाणक्यसूत्राणि
उसे गुणी पुत्र प्राप्त होते हैं । पुत्रोंके पास विद्या, धन तथा सुचरित्र होनेपर पिता ही नहीं समस्त संबन्धियोंको दिव्य सुख और दिव्य दर्ष प्राप्त होता है। इससे यह किंवदन्ती प्रचलित हो गई है कि- " पुत्रेणैवायं लोको जय्यः यह लोक योग्य सन्तानोंसे ही जीता जाता है ।
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एकेनापि सुवृक्षेण पुष्पितेन सुगन्धिना । वासितं तद्वनं सर्व सपुत्रेण कुलं तथा ॥
जैसे एक भी सुगन्धवाले पुष्पित सुवृक्षसे समस्त वन सुगन्धस्नात हो जाता है, इसी प्रकार एक भी सुपुत्र से समस्त कुल गौरव पा जाता है । ( सन्तान के प्रति पिताका कर्तव्य )
विद्यानां पारं गमयितव्याः || ३८२ ।।
पुत्रा पुत्रोंको विद्याओंका पारंगत बनाना चाहिये ।
विवरण - अपने देशके बालकोंको मानवताकी संरक्षक तथा जीवनोपयोगी दोनों ही प्रकारकी विद्याओंका पारंगत बनाना चाहिये | अपने देश के बालकों को लौकिक, अभ्युदय तथा मानसिक शान्ति दोनों ही कला सिखानी चाहिये । उनका अभ्युदय उनकी मानसिक शान्तिके नेतृत्व और प्राधान्य में ही फूलना फलना चाहिये । उन्हें धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, वार्ताशास्त्र अध्यात्मशास्त्र, शिल्प, राजनीति, युद्धविद्या आदि समस्त विद्यानोंका पारंगत बनाना चाहिये । देश के जिन बालकों में समस्त विद्याओंके प्रहण, धारण तथा उपयोगका सामर्थ्य होता है वे देशकी विभूति बन जाते हैं ।
सत्कुले योजयेत् कन्यां मित्रं धर्मेण योजयेत् । व्यसने योजयेच्छत्रन् पुत्रान् विद्यासु योजयेत् ॥
कन्याको सत्कुल में, मित्रको धर्मसे, शत्रुको विपत्तिसे, तथा पुत्रोंको विद्याओंसे युक्त कर देने में ही कल्याण है । सत्यनिष्ठा ही संपूर्ण विद्याओंका सार है । अपने पुत्रोंको सत्यनिष्ठ बनाना ही पिताका सन्तानपालन धर्म है। पिता स्वयं सत्यनिष्ठ बनकर । पुत्रको सत्य के मार्गपर चला सकता है ।