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चाणक्यसुत्राणि
बनजाता तथा अधर्मप्राप्त काम अनर्थोत्पादक होनेसे राष्ट्रका कोई अभाव पूरा न करके, उसे अभावग्रस्त मनुष्यताहीन तथा कंगाल बनाकर नष्ट कर देता है ।
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( राष्ट्रीय कायाका आधार )
अर्थमूलं कार्यम् ।। ९२ ।।
अर्थ कार्योंका मूल होता है ।
विवरण राज्यश्री ही राजशक्तिकी कर्मण्यताको संरक्षिका होती है । लौकिक काम भी साक्षात् या परम्परया धनधान्यदिसे ही निष्पन्न होते हैं । जैसे पर्वतसे नदियां निकल कर बढ़ने लगती हैं, इसी प्रकार प्रवृद्ध अर्थों से समस्त काम होने लगते हैं ।
यदल्पप्रयत्नात् कार्यसिद्धिर्भवति ॥ ९३ ॥
राज्यश्री पानेपर कार्य अल्प प्रयत्नसे सिद्ध हो जाते हैं ।
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विवरण - क्योंकि राजकाजकी सिद्धि तथा राज्यश्री एक दूसरे पर समानभाव से निर्भर होती हैं ( अर्थात् सुसंपन राजकार्योंसे तो राज्यश्री की प्राप्ति होती और राज्यश्री की प्राप्तिसे राजकाज सुसंपन्न होते हैं ) इस दृष्टि से अल्पप्रयत्नों से कार्य सिद्ध होने की बातका कोई अर्थ नहीं है । प्रयत्नमें अल्पता अधिकताका प्रश्न ही व्यर्थ है । कार्यसिद्धिमें उपायका ही प्रश्न उठता है । कार्य उपायोंकी अभ्रान्तता से ही सिद्ध होते हैं। उपाय अभ्रान्त होनेपर जितना प्रयत्न आवश्यक होता है, उतना करना ही पडता है और करना ही चाहिये | उतना प्रयत्न किये बिना कार्य सिद्ध नहीं होपाता । इसीलिये अगले सूत्रोंमें उपायका प्रसंग आरहा है । इस दृष्टिले अग्रिम पाठ ही प्रकरणसंगत है | यह पाठ महत्त्वहीन है ।
( उपायका स्वरूप )
पाठान्तर-- यत्प्रयत्नात् कार्यसिद्धिर्भवति स उपायः ।
जिस प्रयत्नसे जो काम सिद्ध हो वही प्रयत्न उस कार्यका उपाय कहता है ।