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धर्म तथा कामका आधार
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मान रहते है और वे प्रजामें राष्ट्रनीति के प्रति असन्तोषका रूप लेकर रहते हैं । ये राष्टविप्लवके बीज अन्तमें राज्यको विध्वस्त करडालते हैं।
अथवा- राजा प्रजा दोनोंका ऐश्वर्य प्रजाकी जीवनयात्राके अक्षुण्ण चलते रहने अर्थात् प्रजाके उपार्जनसाधनोंके निर्विघ्न बने रहनेपर ही निर्भर होता है।
पाठान्तर- वृत्तिमूलोऽर्थलाभः । मर्थलाभ प्रजाको शान्त स्थितिपर निर्भर करता है।
__(धर्म तथा कामका आधार )
अर्थमलौ धर्मकामौ ॥ ९१ ॥ (ऐहिक कर्तव्योंके पालनके साथ साथ मानसिक उत्कर्ष रूप ) धर्मका अनुष्ठान, तथा राष्ट्रकी कामनाओं (अर्थात् अभावों या आवश्यकताओं) की पूर्ति, राज्यश्वर्यकी स्थिरतापर ही निभर रहा करती हैं।
विवरण- अर्थके बिना देशहितकारी कर्मों में दान तथा भोग नहीं होता। परन्तु इसका यह अर्थ न लिया जाय कि मनुष्य जिप्त किसी अभद्र उपायसे उपार्जन करे । इस प्रकारका धनोपार्जन मानवको अशुभ कर्मों में प्रवृत्त करके उसका सर्वनाश किये बिना नहीं मानता । इसीसे महाभारत में कहा है- “परित्यजेदर्थकामौ यो स्यातां धर्मवर्जितौ" मनुष्य उस अर्थ और उस काम या भोगको तिलांजलि देदे जो मानवधर्मके अनुरूप न हो, जो मनुष्यताकी हत्या कर दे । धर्म, अर्थ, कामका त्रिवर्ग समान भागमें पालित होनेपर ही राष्ट्रके लिये कल्याणकारी होता है । केवल धर्म, केवल अर्थ या केवल काम अव्यावहारिक तथा अन्तमें मानवको पछाड डालनेवाली प्रवत्ति हैं । ये तीनों एक दूसरेके अवध्यघातक अर्थात भाभिमबुद्धि से पाले जाते रहें, इसीमें मानवका कल्याण है। धर्म तथा कामके उपयोगमें माना ही भयंका अभिप्राय या उसकी सार्थकता है । अर्थ तथा काम धर्मके अनु. गामी होनेपर ही सार्थक होते हैं । अन्यथा अधर्मोपार्जित अर्थ तो अनर्थ