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चाणक्यसूत्राणि
अज्ञानता तथा फंसनेकी सम्भावना भी रहती है। यही कर्मबन्धन है । इस कर्मबन्धन से अतीत नित्य सुखी बने रहना ही सच्चा ज्ञान है ।
कर्ममात्रका भौतिक, अनुकूल या प्रतिकूल फल अवश्यंभावी होता है । मनुष्य भौतिक अनुकूल, प्रतिकूल, फलों को ही सुखदुःख नाम देनेकी भ्रान्ति कर बैठता है । कर्मफलों को सुखदुःख कहने लगना या मानने लगना तो प्रतारित होना है । कर्मफलसे मनपर पडनेवाले अनिवार्य प्रभाव ही वास्त वमें सुखदुःख हैं । सुखदुःख समझे हुये कर्मफलोंकी प्रतारणा फंस जाना अज्ञान है । कर्मफल अवश्यम्भावी परिवर्तनशील अस्थिर अवस्थायें हैं । इन अवश्यंभावी परिवर्तनशील अस्थिर अवस्थाओं को ज्ञानसे पराभूत करके स्थिर बनकर रहना ही दुःखद्दीन अखण्ड विजयोल्लास या नित्य सुग्व है । सुख या दुःख माताके पीछे नियमसे लगे फिरनेवाले बालकोंके समान स्वभाव से कर्ता के पीछे नियलसे लगे फिरते हैं । सुखदुःख पुण्यपाप के परिणाम के प्रतीक्षककी श्रान्ति ही उत्पन्न होते हैं। अध्यात्मरामायण के अनुसार
सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता परो ददातीति कुबुद्धिरेपा । सुखदुःख कोई दुसरा देता है यह मनुष्यकी कुबुद्धि है। मनुष्यकी बुरी भली कल्पना ही उसे सुखदुःख देनेवाली है । जो बुरी भावना करता है, वह पापजन्य अशान्तिरूपा मानसदुःख पानसे अपने को बचा ही नहीं सकता । जो सुभावनारूपी पुण्यकारी होता है वह पुण्यजन्य शान्तिनामक मानससुखसे कभी चित रह ही नहीं सकता । जो करता है वही भोगता है। बुरी भावना ही बुरा कर्म और शुभ भावना ही शुभ कर्म है । कर्म स्वयं न तो बुरा होता है और न भला । कर्ममें दीखनेवाली बुराई भलाई भावनाकी ही बुराई भलाई होती है । कर्ममें बुराई कर्मप्रेरक भावनाओं का उधार होता है। भावना शुद्ध होनेपर अपराध समझे हुए कर्म भी निर्दोष माने जाते हैं । भावना अशुद्ध होनेपर किये हुए भले काम भी पापपक्ष में ही गिने जाते हैं। जैसे चोरी करने या दूसरों को ठगनेके लिये ओढा हुआ
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