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चाणक्यसूत्राणि
कुलं प्रख्यापयति पुत्रः ॥ ३८७ ॥ सुसन्तान अपनी विद्या, दान, मान, यश तथा धर्मसे अपने चंशका मुख उज्ज्वल कर दता है।
एको हि गुणवान पुत्रो निर्गुणेन शतेन किम् ?
चन्द्रो हंति तमांस्यको न च ज्योतिः सहस्रशः ॥ एक गुणी पुत्र ही पर्याप्त है । सौ निर्गण पुत्रोंसे कल्याण नहीं है । चन्द्रमा एक ही उन अंधकारोंको मिटा डालता है जो सहस्रो तारोसे नहीं मिट पाते।
उत्तमश्चिन्तितं कुर्यात् प्रोक्तकारी च मध्यमः ।
अधमोऽश्रद्धया कुर्यादकतॊच्चरितं पितुः ॥ उत्तम पुत्र वह है जो योग्य पिताके चिंतितमात्रको समझ जाय और करले, मध्यम वह है जो उसके कहे हुएको करले, अधम वह है जो अश्र. द्वासे करें । जो करे ही नहीं वह पुत्र नहीं ।
( सच्चा पुरुष) ( अधिक सूत्र ) येन तत्कुलं प्रख्यातं सः पुरुषः । कुल में उत्पन्न होनेवाले जिस मानवसे उसका कुल, विद्या, गुण, धर्म तथा गौरवसे जगमगा उठे वही सच्चा पुरुष है।
विवरण- जिसके उत्पन्न होने से कुलको अगौरव मिले, वह पुरुष पुरुषगणनामें आने के योग्य नहीं है ।
पात्रे त्यागी, गुणे रागी, भोगी परिजनैः सह ।
शास्त्रे बोद्धा, रणे योद्धा, पुरुषः पंचलक्षणः ।। पात्रको दान देंगेवाला, गुणोंका प्रेमी, परिजनों को खिलाकर खानेवाला, विद्याका पारंगत, पापके विरुद्ध संग्राम करने में प्रवीण ये पांच बातें जिसमें हैं वही सच्चा मानव है।