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दान दैनिक कर्तव्य
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शक्ति इन तीन बातोंपर ध्यान रखकर सोचना चाहिये कि आगन्तुककी सेवाके दुरुपयुक्त होने की सम्भावना तो नहीं है ? और इसकी सेवा करना समाज-कल्याणकी रष्टिसे अत्याज्य भावश्यक कर्तव्य भी है या नहीं? इन दोनों प्रश्नोंका संतोषजनक समाधान होजानेपर आगन्तुक लोग अतिथि रूपमें स्वीकृत होनेके अधिकारी बन जाते हैं।
अतिथि-सेवाका प्रसंग मानेपर गृहस्थमें उसकी सेवा करने की शक्ति होने न होनेका विचार भी अत्यावश्यक होता है । यदि गृहस्थ रोग, शोक, कर्त. न्यान्तरको व्यग्रता, स्थानाभाव आदि अनिवार्य कारणों से अशक्त हो तो उसकी अशक्तता ही सेवाधर्मकी अस्वीकृतिका उचित कारण बन जाती है। उस समय नम्रताके साथ मतिथिसे अपनी असमर्थता प्रकट कर देना गृहस्थका कर्तव्य होता है। गृहस्थके पास किसी प्रकारकी विवशता न होनेपर अपने भोजनाग्छादन तथा माश्रय स्थानसे हार्दिकताके साथ भागन्तुककी सेवा करना कर्तव्य होता है। यदि गृहस्थोंको भागन्तुकके उद्देश्य और परिचयसे संतोष न हो तो शक्ति होते हुए भी उसकी सेवा न करना मी गार्हस्थ्य धर्मके ही अन्तर्गत है । अज्ञात कुलशील व्यक्तिको क्षणभरके लिये भी परिवारमें सम्मिलित करना अनिष्टकी सम्भावनासे रीता न होने के कारण उसे स्वीकार करना न केवल निर्बुद्धिता है प्रत्युत समाजकल्याणकी इष्टिसे अधर्म भी है। न ह्यविज्ञातशीलस्य प्रदातव्यः प्रतिश्रयः ।
( दान दैनिक कर्तव्य ) (अधिकसूत्र ) नित्यं संविभागी स्यात् । अपने उपार्जित धनपर उचित अधिकार रखनेवालोंको उनका भाग सदा ही देता रहे।
विवरण- धनोपार्जन जिस समाजकी सहानुभूति तथा जिन स्वजन बान्धवोंके सहयोगसे हो पाता है, धन सबको उन सबका अधिकार समाज