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चाणक्यसूत्राणि
हैं । पाठक यह न भूलें कि नारीका पातिव्रत्य धर्म साय-सेवासे अभिन्न होने के कारण यह सूत्र पतिपर भी सत्य सेवक होनेका बंधन लगा रहा है ।
तदनुवर्तनमुभयसौख्यम् ॥५१३॥ पत्नी पतिके समस्त धार्मिक कृत्योंमें सहयोगिनी बनी रहे इसमें पतिका ही नहीं दोनों हीका जीवनभर सुख और हित है।
विवरण- इन दोनोंका परस्पर विरोध होनेपर गृहस्थसंबन्धी कर्त. व्योंकी हानि तथा दोनों को निरन्तर क्लेश रहने लगता है । स्त्रीका कर्तव्य है कि वह घरेलू, सामाजिक या पारमार्थिक सब कामों में सत्यनिष्ठ भर्ताका अनुसरण करे, उसकी अनुज्ञा पाकर ही कोई काम करे और अपने संबंध उसकी सुमति बनाये रहे । इसी प्रकार पतिके भी पत्नीके संबंध गंभीर कर्तव्य हैं । जहाँ दाम्पत्य धर्म उभयपक्षसे पालित नहीं होता वहाँके गाईस्थ्य जीवनका दुःखदायी होना अनिवार्य होजाता है। पाठान्तर- अपत्यं स्त्रीणामुभयत्र सौख्यं वहति । अपस्य स्त्रियोंको वर्तमान तथा भावी दोनों में सुख देता है।
(अतिथि-पूजा) अतिथिमभ्यागतम् पूजयेद्यथाविधि ॥५१४॥ अतिथि (समय निश्चित न करके अकस्मात् घर उपस्थित होनेवाले तथा उपस्थित होकर गृहस्थसे सेवा पानेके परिचित या अपरिचित अधिकारी) तथा अभ्यागत (समय निश्चय करके आनेवाले सेवा पानेके परिचित अधिकारी) दोनोंका यथाविधि सत्कार करे।
विवरण- अतिथि तथा अभ्यागतकी सेवा करनेका प्रसंग मानेपर मनुष्य के सामने यह मुख्य विचारणीय समस्या भा खड़ी होती है कि इन्हें हमसे सेवा पानेका अधिकार है या नहीं ? आगन्तुकके अपरिचित होने पर उसका परिचय, मानेका उद्देश्य तथा गृहस्थ की सेवा करनेकी