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चाणक्यसूत्राणि
बन्धनकी रीतिनोतिके अनुसार राजकरके रूप में देते रहना चाहिये। इसके अतिरिक्त सामर्थ्यानुसार देश, काल, पात्रका ध्यान रखकर दान भी करना चाहिये । आपने उपार्जनका भोगाधिकार अपने में ही संकुचित न रखा जाकर जिस समाजके साथ अपना मन सम्मिलित हो, जिसके प्रति अपनी सहानुभूति हो, उसके कल्याणके अनुकूल अपने जीवन-साधनोंको विभाजित करते रहना भी गृहस्थ का धर्म है । गृहस्थ धर्म में दीक्षित लोग समस्त राष्ट्र-कल्याणके उत्तरदायी हैं।
यथा नदीनदाः सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम् । तथा गृहस्थमाश्रित्य सर्वे जीवन्ति जन्तवः ॥ ( मनु ) उनका कर्तव्य है कि वे अपनी जीवनयात्राके साधनों को समाज-कल्याणके कामों में बाँटकर जब अपने भोग्यदयोको समाजसेवारूपी यातक। शेष बना लें तब ही उनका उपयोग करें ।
यशशिष्टामतभजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् । मनुष्य जितना उपार्जन करे उसमें से प्रतिदिन अतिथि, देवता, पितर, दीन मादि उन समस्तको जो समाजपर निर्भर रहते हैं, दान दे तथा समाज कल्याणके काम में नियमित रूप र उत्साहपूर्वक अर्पण करे । अपना समस्त उपार्जन स्वयं ही खा पीकर बराबर न कर दे । मनुष्य जिस समाज के सहयोगसे उपार्जन कर रहा है उस ( समाज ) को तो उस उपार्जनमें से उपा. जकको दानभावना के द्वारा योग्य भाग पानेका पूर्ण अधिकार है और योग्य भाग देने में कृतज्ञ मानवका भात्मकल्याण है। __प्रत्येक मनुष्य अपने समाज को सुखी तथा सद्गुणी बनाने में अपने दैनिक उपार्जन में से एक सुनिश्चित भाग देता रहे तब ही कोई समाज सुखी रह सकता है और अपने व्यक्तियों को सुखी तथा सदगगो रख सकता है । मनुप्यके व्यक्तिगत जीवनका सुखी होना उपके समाज के सुखी, सद्गुणी तथा दानी होनेपर ही निर्भर है। मनुष्य का व्यक्तिगत जीवन उसकी सामाजिक स्थिति के अनुसार ही सुखी-दुःखी या भला-बुरा होता है। इसलिये मनुष्य