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दान अव्यर्थ साथी
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अपने सामाजिक उत्तरदायित्व तथा कर्तव्योंको पहचानकर अपने दैनिक उपार्जनमें से समाजका भाग समाजको अनिवार्य रूपसे दान के रूप में दिया करे ।
केवल पेट पालना कोई महत्व नहीं रखता । मनुष्यका महत्त्व तो उस बात में है जिसे मनुष्येतर प्राणी नहीं कर सकते । दूसरे प्राणी में सामाजिक दिवादित बुद्धि नहीं है । वे अपने समाज कल्याणमें कोई महत्वपूर्ण योग देनेके योग्य ही नहीं होते । मनुष्यका सेव्य समाज ही है । वह अपने समाजके कल्याणमें आत्मकल्याण बुद्धिसे महत्वपूर्ण सहयोग दे सकता है । वह अपने समाज के व्यक्तियोंको सद्गुणी, सम्पन्न और सुखी बनाने में अपना सहयोग देनेके पश्चात् शेष रहे धनरूपी यज्ञशेषसे अपनी यात्रा करे इसी में उसकी महत्ता है, इसीमें उसका आत्मकल्याण है और इसी में उसके देशका उदार है
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( दान अव्यर्थ साथी )
नास्ति हव्यस्य व्याघातः ।। ५५५ ॥
योग्य पात्र में दिया हुआ दान व्यर्थ नहीं जाता ।
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विवरण - योग्य पात्र में दिया दान ही हव्य या यज्ञ-सामग्री है। समाज के योग्य सदस्योंकी सहायता करना समाजकी ही सेवा है । समाज कल्याणमें ही अपना कल्याण है । इस दृष्टिले मानवका जीवन ही एक विशाल यज्ञका रूप ले लेता है । इस दृष्टिसे योग्य पात्रमें दान करनेवाला दाता ग्रहीतापर कोई उपकार न करके आत्मकल्याण ही करता है ।
अथवा - हव्य ( अर्थात् देवपूजा या समाज-सेवा आदि कमौके लिये श्रद्धापूर्वक प्रदत्त द्रव्य ) को नष्ट हुआ नहीं माना जाता ।
दान कभी भी व्यर्थ या निष्फल नहीं जाता। सच्चा दान अपना कोई बाह्य परिणाम ला सके । या न ला सके उससे दाताका आत्मा निश्चितरूप से उन्नत हो जाता ( क्षुद्रता त्यागकर महत्ता प्राप्त कर लेता ) है दान आत्म