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________________ १०२ चाणक्यसूत्राणि वह जब मज्ञानवश होकर अहंकारककी अधीनता मान बैठता है तब अपनी क्षुद्रता अनुभव करके या अपनेको क्षुद्र समझकर बाह्य परिस्थितियोंसे हार मानकर कर्म छोडकर बैठ जाता है। यदि मनुष्य अपनेको ईश्वरार्पण करनेकी कला जानता हो तो वह ऐसे समय अपनी समस्त परिस्थितिको ईश्वरार्पण करके ईश्वरकी अनन्तशक्तिसे शक्तिमान होकर विकटतम परिस्थितियों में भी कर्मोत्साही हुए बिना नहीं रहता । विपत्ति ईश्वरको मनुष्य के लिये असाधारण महत्व रखनेवाली देन है। वह उसे विपद्विजयकी कला सिखाने के लिये माती है। विपद् भेजनेवाला विधाता नहीं चाहता कि विपद् भेजकर अपने मनुष्यबालकको विनष्ट कर डाला जाय । दैवकी प्रतिकुलताको अनुकूलता बनानकी भी एक कला है। विपद् मनुष्य के पास देवकी प्रतिकलताको अनुकलता बनाकर मानवजीवन में पुरुषार्थको विजय दिलाने के लिये ही माती है। ये ही सब बातें आर्यचाणक्य कहना चाहते हैं। (मानुषी विपत्तिका प्रतिकार ) मानुषी कार्यविपत्तिं कौशलेन विनिवारयेत् ॥१२४॥ कार्य बिगाडनेवाले मानवीय विघ्नोंको अपनी सतर्कता तथा बुद्धिकौशलसे परास्त करे । विवरण- इसका अर्थ यह हुआ कि मनुष्य अपने कर्मकी त्रुटिहीनताके सम्बन्धमें पूर्ण सन्तुष्ट और निश्चिन्त बने । कर्मकी त्रुटिहीनताके सम्बन्धमें संशयित, अयोग्य और अकुशल बना रहकर कर्ममें हाथ लगानेसे निष्फलता होती है। बुद्धिकी निपुणता ही कौशल है । आग देना, विष देना, धनापहार, गुप्तषड्यन्त्र, जिघांसा, आदि मानुषी विपत्ति हैं । मनुष्य अपने प्रतिभाचातुर्यसे इन सब विपत्तियोंको हटाता रहे। पाठान्तर- मानुषी कार्यविपत्तिं कौशलेन वारयेत । ( मूढ स्वभाव ) कार्यविपत्तौ दोषान् वर्णयन्ति बालिशाः ।।१२५॥ मूढ लोग कार्यमें असफल होचुकनेपर या तो अपनी उन त्रुटियोंपर पश्चात्ताप करते हैं, जिन्हें उन्हें पहले ही हटाकर
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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