SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूढ स्वभाव १०३ फिर काममें हाथ लगाना चाहिये था या आपस में एक दूसरेपर काम बिगाडनेका दोष लगाकर कर्ताको लांछित तथा स्वयं निर्दोष समीक्षक बनना चाहा करते हैं । विवरण- कार्यारम्भसे पहले उसकी अग्रचिन्ता करके समस्त संभावित विघ्नोंके निवारणका प्रबन्ध करना ही बुद्धिमत्ता है और कर्मको त्रुटिको समझजाना भी है । बिगडे कामकी हंसी उडा लेना तथा किसी दूसरे पर काम बिगाडनेका लांछन लगा देना, सुकर है परन्तु किसी बिगड़े काम की हंसी उड़ा लेना हो और किसीपर दोष थोपदेना ही कर्मकी त्रुटिको समझ - जाना नहीं है । विचारशील लोग कर्ममें विपत्ति बाजानेपर दूसरोंपर दोषारोपण करनेकी क्षुद्र प्रवृत्तिको त्यागकर बिगडे कार्यका समाधान करके उसे सर्वांगपूर्ण सुसम्पन्न बनानेवाले समस्त संभावित उपायोंको अपनाने में दत्तचित्त होजाते हैं । गच्छतः स्खलनं क्वापि भवत्येव प्रमादतः । हसन्ति दुर्जनास्तत्र समादधति सज्जनाः ॥ कर्मकी रीति में किसी प्रकारका प्रमाद होनेपर कर्ममें विघ्न अनिवार्य रूपसे आता हे । उस समय मूढ लोग तो हंसी उडाते और सज्जन उसे ठीक करने के उपाय सुझाते हैं । मूढ लोग घावको खोज निकालनेवाली मक्खियोंके समान दोष ही दोष खोजते फिरा करते हैं । परन्तु उन्हें गुणदोषविवेक करनेका अधिकार नहीं होता । वह तो केवल बुद्धिमानोंको होता है। मूढको नहीं । दण्डीने कहा है - गुणदोषानशास्त्रज्ञः कथं विभजते जनः । किमन्धस्याधिकारोस्ति रूपभेदोपलब्धिपु ॥ जैसे अन्धको रूपोंके भेद जाननेका अधिकार नहीं उसी प्रकार बुद्धिद्दीन अशास्त्रज्ञको गुणदोष पहचाननेका अधिकार नहीं है। मृढ मानव कर्मकी त्रुटि समझने में पूर्ण असमर्थ हैं। ऊपर कह चुके हैं कि बिगडे कामकी हंसी उडा लेना ही कर्मकी त्रुटि समझ जाना नहीं है । कर्मकी त्रुटि समझने की कला विचारशील लोगोंका ही एकाधिकार है ।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy