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चाणक्यसूत्राणि
इन्द्रिय विजयको राज्यका मूल कहा जा चुका है । राजाओंके समस्त शुभ कर्म जितेन्द्रियता रूपी तपस्याले सिद्ध होते हैं । जिवेन्द्रिय ज्ञानी राजा फलाकांक्षासे रहित होकर कर्तव्यबुद्धिसे राजकाज करता है इसीलिये उसे भौतिक सफलता मिले या किसी कारणसे न मिल पाये वह सदा ही सफलताका संतोष पाता रहता है । जितेन्द्रिय तपस्वी राजा असफल होना जामता ही नहीं । वह अपनी जितेन्द्रियताको हो संसारका सर्वश्रेष्ठ तप और तपस्याको ही संसारका सर्वश्रेष्ठ फल मानता है । वह बाह्य संसारी फलका दास नहीं बनता । इसी कारण सफलता उसकी चेली बनकर उसके सामने किंकरके समान हाथ बांधकर खड़ी रहती है । सफलतामें उसके पास से टलनेकी शक्ति नहीं रहती ।
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मनुष्य यह जाने कि कर्तव्यपालनका सन्तोष ही कर्तव्य पालनका फल है । परन्तु यह एक ऐसी सचाई है जिसे विषय लोलुप अजितेन्द्रिय पामर प्राणी लाख बतानेपर भी नहीं जान सकता । इस सत्यको तो जितेन्द्रिय मनुष्य ही जान सकता है। इस संसार में जितेन्द्रियतासे ऊँचा और कुछ भी नहीं है । जितेन्द्रियता ही मनुष्यमात्रका अधिकार तथा मनुष्यमात्र के जीवनका लक्ष्य है । संसारकी सर्वश्रेष्ठ साधनाकी जो अन्तिम स्थिति है वही तो जितेन्द्रियता है । जितेन्द्रियता ही मानवजीवनका अन्तिम साध्य है । जिनेन्द्रियता स्वयं ही फल है । वह किसी फलका साधन नहीं है जैसे फलका कोई फल नहीं होता इसी प्रकार जितेन्द्रियताका इससे भिन्न और कोई फल नहीं है । वह स्वयं ही अपना फल हैं ।
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इति चाणक्यसूत्राणि ।
चाणक्य सूत्र समाप्त ।