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तपस्या सर्वकार्य साधक
होता है कि स्वार्थियों के समाजमें कानूनकी पकडमें न मानेवाले समाजको लूटनेवाले समाजद्रोही लोग तो अदण्डित रहकर फूल ते फलते हैं और समाजके शान्तिप्रिय लोगोंपर अत्याचारके मेघ बरसने लगते हैं।
अपने व्यक्तिगत कल्याणको समाज के सार्वजनिक कल्याणमें विलीन कर डालनेवाली मानवीय न्याय बुद्धि ही क्षमाशीलताका मर्म है । क्षमासे समाजमें शान्ति सुरक्षित रहनी चाहियेन कि वह नष्ट हो जानी चाहिये। शान्तिरक्षामें भ्रान्ति क्षमाका दुरुपयोग है । क्षमा शान्तिरक्षाका निषेध या विरोध करनेवाली नहीं होनी चाहिये । क्षमा शब्दका मर्म समझने के लिये जानना चाहिये कि दूसरे को क्षमा करना यथार्थ क्षमा नहीं है । अपने दोषों का मानमर्दन ही क्षमा है। कामक्रोधादि भाभ्यंतरिक दोष, मनुष्यक सच्चे सुखके मागमें विघ्न डालनेवाले अर्थात् उसके मनपर भाक्रमण करनेवाले सच्चे शत्र हैं । वे मनुष्य के कर्तव्यका मार्ग भी बिगाडते हैं तथा सुखके मार्गको भी नष्ट कर डालते हैं । इन शत्रुओंपर विजय दिलानेवाली जितेन्द्रियता ही अमा है और यही एकमात्र वह सफल तपस्या है जिसे मनुष्यको अपने जीवनमें अपनाना है। जितेन्द्रिय तपस्वी नित्य सुखका अधिकारी बन जाता है।
( तपस्या सर्वकार्य साधक ) तस्मात् सर्वेषां कार्यसिद्धिर्भवति ॥५७१॥ उस (तप ) से सबके काम सिद्ध होते हैं। विवरण- जितेन्द्रिय मनुष्य अपने व्यक्तिगत स्वार्थको समाजके कल्याणमें विलीन कर डालता है। वह अपने स्वार्थको समाज-कल्याणमें विलीन करके जो कुछ करता है सबका सब सस्यकी सेवा होता है। वह सबका सब समाज कल्याणरूपी तपस्या ही होता है।
जितेन्द्रियता राज्यश्रीको सुरक्षित रखने तथा उसकी मायुको बढाने. वाली तपस्या है। ग्रन्थके प्रारंभमें ही ' राज्यस्य मूलमिन्द्रियजयः ।