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चाणक्यसूत्राणि
( अपने प्रभावक्षेत्र में ही मनुष्यकी पूजा ) स्थान एव नराः पूज्यन्ते ॥ ३०९ ॥
मनुष्य अपने प्रभावक्षेत्रमें ही पूजे जाते हैं ।
विवरण - स्थानका विवक्षित अर्थ मनुष्योंका अपना प्रभावक्षेत्र ही है । प्रभावका ही माहात्म्य है स्थानका नहीं । प्रभावहीन मनुष्य सब ही स्थानों में निष्प्रभ रहता है । सत्यका प्रभाव ही प्रभाव है 1 भौतिक बलका प्रभाव प्रभाव नहीं है, वह तो भीति है । सत्यद्दीन व्यक्ति प्रत्येक स्थानमें असत्यका दास रहता है । सत्यनिष्ठ प्रभावशाली मनुष्य अपने आत्मब्रह से सब स्थानोंको अनुकूल बनाकर समुज्वल तथा आदरणीय रहता है । प्रतिष्ठित परिस्थिति में वही प्रभावशाली होता है जिसने वह परिस्थिति स्वयं बनाई होती है । कोई भी परिस्थिति किसी पुरुषार्थहीन प्रभावहीन व्यक्तिको प्रभावशाली नहीं बनासकती । असत्यका दास तो सत्यनिष्ठ परिस्थिति में नट होजाता है। इसके विपरीत सत्यनिष्ठ व्यक्ति असत्यकी परिस्थिति में पेक्षित रहता है । असत्य परिस्थितिमें तो असत्यकी दासता करनेवाला ही बादर पाता है । उसकी बनाई परिस्थिति सदा उसकी अनुकूलता करती रहती है ।
स्थानस्थितस्य कमलस्य सहायौ वारिभास्करौ । स्थानच्युतस्य तस्यैव क्लेदशोषकरावुभौ ॥
कमलके स्वस्थानमें लगे रहनेपर जल तथा सूर्य दोनों उसके सहायक होते हैं । परन्तु जब वह स्थानभ्रष्ट होजाता है तब जल तो उसके लिये क्केदकारक तथा सूर्य उसके लिये शोषक बनजाता है । कमलकी सजीव अवस्था ही उसके मृणालको सरल बनाये रखने में नियुक्त रहती है। वही डण्ठल निर्जीव कमलके लिये जलसंचार करनेमें असमर्थ होजाता है ।
मनुष्यको अपना प्रभावक्षेत्र, अपनी तपस्या तथा सत्यनिष्ठा से स्वयं बनाना पडता है | मानवहृदय में अपनी मनुष्यताको प्रकट रखनेकी अनुकूलता या प्रवृत्ति स्वभाव से रहती है। सत्यनिष्ठा तथा असत्यद्रोह ही मनुष्यका मानव