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चाणक्यसूत्राणि
राष्ट्र कल्याण इसी में होता है कि समाजका हित कर सकनेवाली देवी पाक्तियों को ही राज्याधिकार मिले । परन्तु समाजके दुर्भाग्यसे सदा ऐसा नहीं होता । जनमतकी अनुक्षुद्धतासे बहुधा व्यावहारिक रूपमें समाजके शत्रुता करनेवाली वावदूक वार्ताविक्रयी, मक्कार, प्रतारक, मासुरी शक्तिये राज्याधिकार पा जाती हैं । राज्याधिकार पा जानेवाली भासुरी शक्तिये मोहनिद्राके कारण अहितको हित समझ बैठनेवाले श्रमिष्ठ लोकमतकी मोहान्धतासे अनुचित लाभ उठा उठा कर समाजको प्राणशक्तिका शोषण करने लगती हैं । समाज तथा राजशक्ति दोनोंके मोहान्ध बन नानेके विकराल काल में राज्यसंस्थाके निर्माता मोहनिद्रासे अभिभूत समानके कानोंको हितोपदेश सुनाना विचारधर्मी सेवकोंका ऐसा अनिवार्य कर्तव्य बनकर उनके सामने मा खडा होता है जिससे वे अपनेको रोक ही नहीं सकते । सब उन्हें समाज तथा राज्यशक्ति दोनोंके मोहनिद्राभिभूत जड मस्तिष्कोपर तीव्र ज्ञानाकुंशके उद्बोधक प्रहार करने पड़ते हैं। ऐसे विकट समयोंपर विष्णु. शर्माके शब्दों में
जनपदहितकर्ता त्यज्यते पार्थिवेन्द्रः। राजरश्मि पकडे रहनेवाले लोग नहीं चाहते कि जनता स्वाधिकार रक्षाके लिये स्वयं उद्बुद्ध हो या कोई अन्य उसे उबुद्ध करे । बृहदारण्यकमें भी इसीके समान रोचक वर्णन पाया है ।
तस्मादेषां तन्न प्रियं यदेतन्मनुष्या विद्युः । । यह देवताओंको प्रिय प्रतीत नहीं होता कि मनुष्यों को भारमबोध हो जाय । जैसे देवताओंकी जीविका (इन्द्रियोंकी विषयकण्डूतिपूर्तिस्पृहा) अनुबुद्ध लोगोंके ही सहारेसे चलती है इसी प्रकार सुषुप्त लोकमत स्वार्थी राज्याधिकारियों के स्वार्थका क्षेत्र हो ही जाता है । लोकमतके जाग उठनेपर तो राज्याधिकारियोकी मिथ्या प्रतिष्ठाका धूलमें मिला दिया जाना अनि. वार्य होजाता है। इसलिए जनजागरणकी सेवाको अपनानेवालोंको मासुरी राजशक्तिका रोषपात्र बन ही जाना पड़ता है। वह उनके भाषण तथा लेखनके