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चाणक्यसूत्राणि
विजय दिलानेवाले उत्साह, वीर्य, मानन्द तथा वीरोचित गुण मनुष्यको प्राप्त नहीं होसकते।
एकस्यापि हि योऽशक्तो मनसः सन्निबहणे । महीं सागरपयन्तां स कथं वजेष्यति । निरुत्साहो निरानन्दो निर्वीयों निर्गुणः पुमान् ।
किं जेतुं शक्यते तेन तस्यात्मा चाप्यरक्षितः ॥ उत्साह, आनन्द, वीर्य तथा गुणोंसे होन वह मनुष्य जिसके माभ्यन्तरिक दोष अपने ही आपको शव-दहको नोचकर खानेवाले गृध्रोंके समान नोच नोचकर खाये जा रहे हैं, क्या कभी शत्रुओपर विजय पासकता है ? जो एक मनको नहीं रोक-थाम सकता, वह सागरपर्यन्त भूमिपर कैसे विजय पासकता है ? जो इस भीतरवाले यात्रुको जीत लेता है वही बाह्य शत्रुओं को परास्त करनेका अधिकार पाता है । आन्तरिक शत्रुभोंको जीते बिना उन सत्साह, भानन्द, वीर्य तथा गुणोंका पाना असंभव है जो विजय दिलाने वाली सर्वाधिक महत्त्व रखनेवाली भावश्यक सामग्री है।
विजिगीषु राजा अपनी राजशक्तिको शक्तिसंपल बनाये रखनेके लिये, अपने राज्याधिकारियों को सदाचारी बनाकर उनके द्वारा संपूर्ण राष्ट्रमें सदा. चारका प्रभाव जमाये रक्खे । तब ही वह शक्तिमान होकर निर्विघ्न रह सकता और राष्ट्र सेवामें समर्थ होसकता है । जो राजा स्वयं सदाचारी हो उसीमें राष्ट्रको सदाचारी रखने की योग्यता होसकती है। कदाचारी राजाकी राजाक्ति भ्रष्टाचारी होकर राष्ट्रको भाचारहीन, अनैतिक तथा निर्बल बना. कर छोडती है । सदाचारहीन राष्ट्र राजशक्ति के भ्रष्टाचारी होनेका भकाट्य प्रमाण है।
( नीचोंका स्वभाव )
निकृतिप्रिया नीचाः ।। २०२ ॥ नीच व्यक्ति सत्पुरुषोंके साथ कपटाचरण करनेवाला होता है।