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मन्त्रीकी नियुक्ति
जो मनुष्य उत्सव, विपति, दुर्भिक्ष, राष्ट्रविप्लव, राजद्वार तथा मृत्युके संकटमें भी साथ देता है वही बान्भव है। .
शोकारातिभयत्राणं प्रोतिविश्रम्भभाजनम् । केन सृष्टमिदं रत्नं मित्रमित्यक्षरद्वयम् ॥ शोक शत्रु तथा भयसे रक्षा करनेवाली, प्रीति तथा विश्वासकी पात्र यह मित्र नामकी दो अक्षरों की जोडी किसने बनाई ?
प्राणैरपि हिता वृत्तिरद्रोहो व्याजवर्जनम् ।
आत्मनीव प्रियाधानमेतन्मैत्रीमहाव्रतम् ॥ प्राणपणसे भी हितचेष्टा करना, द्रोह तथा छल कपट से व्यवहार न करना मित्रका अपने समान प्रिय करना, यही मैत्री नामक महाव्रत है।
पापान्निवारयति, योजयते हिताय, गुह्यं च गृहति, गुणान् प्रकटीकरोति । आपद्गतं न च जहाति, ददाति काले, सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः ॥ पापसे रोकता, हितमें लगाता, गोपनीयको छिपाता, गुणोंको प्रकट करता, विपत्तिमें फंसेको नहीं त्यागता, सहायताके सर्वोत्तम समयपर सहायता करता है, उसीको सन्त लोग सन्मित्र कहते हैं।
मित्रं , प्रीतिरसायनं नयनयोरानन्दनं चेतसः, पात्रं यत् सुखःदुखयोः सह भवेन् मित्रेण तद्दुर्लभम्। ये चान्ये सुहृदः समृद्धिसमये द्रव्याभिलाषाकुलास्, ते सर्वत्र मिलन्ति तत्त्वनिकषयावा तु तेषां विपत् ॥ जो मित्र नयनको प्रीतिरस तथा चित्तको मानन्द देनेवाले, मित्रके सुखदुःखको अपने ही सुखदुःख माननेवाले हों, ऐसे मित्र संसारमें दुर्लभ होते हैं । ये जो समृद्धि के दिनोंमें द्रव्याभिलापासे आकुल होनेवाले मित्र नामक जन्तु होते हैं, ऐसे लोग तो संसारमें बहुत मिल जाते हैं । परन्तु विपत्ति