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चाणक्यसूत्राणि
विवरण- वे साधुलोग तिळमात्र उपकारके बदले में उपकारकके हाथ में आत्मविक्रय कर देते हैं । इसके विपरीत असाधुलोग हिमालय के बराबर उपकारको सरसोंके बराबर भी माननेको उद्यत नहीं होते । मर्यादापुरुषोत्तम रामचन्द्र ने लंका विजयके पश्चात् अयोध्या आकर लंका विजय के प्रमुख सहायक परमउपकारक श्री हनुमान के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हुए कैसा सुन्दर कहा है
मध्येव जीर्णतां यातु यत्वयोपकृतं हरे । नरः प्रत्युपकारार्थी विपत्तिमभिकांक्षति ||
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प्रिय मारुति, तुमने इस विजय में मेरा जो उपकार किया है, मैं तुम्हें उसका कोई बदला देना नहीं चाहता। मैं चाहता हूं कि तुम्हारा उपकार मुझमें ही जीर्ण होजाय और जीवनभर कृतज्ञताके भारके रूपमें मेरे सिरपर खड़ा रहे । मैं तुम्हें तुम्हारे उपकारका बदला इसलिये देना नहीं चाहता कि प्रत्युपकार विपत्तियोंमें ही संभव होता है । उपकारकका प्रत्युपकार करना चाहनेवाले लोग चाहते हैं कि मित्रपर विपत्ति आये तो हम भी बदले में उसका उपकार करके दिखायें | मैं तुमपर ऐसी कोई विपत्ति आनेकी प्रतीक्षा नहीं करना चाहता कि जिसमें मुझे तुम्हारे विपद्दारणका सहायक बनना पडे । ईश्वर न करे कि तुमपर कोई विपत्ति आये ।
प्रश्न होता है कि साधु तिलमात्र उपकारको शैल समान क्यों देखता है ? बात यह है कि साधुकी दृष्टिमें उपकारका भौतिक आकार या परिमाण विवेच्य नहीं होता । किन्तु उपकारकका विशाल हृदय ही उसे आत्मसम पेणके लिये विवश करडालता है । साधु पुरुष उपकारीके साथ अपने उपकृत हृदयकी एकताका माधुर्य चखकर कृतकृत्य होजाता है । इसके विपरीत साधुका कुटिल संकीर्ण हृदय अपनी परस्वापहारिणी लोलुप बुभुक्षाको परितृप्त करनेके लिये दूसरेके हिमालय तुल्य उपकारको भी अपनी लोभाग्निमें भस्मीभूत करके भूखाका भूखा ही रहजाता है । वह अपनी दुष्पूर कामाग्निसे प्रतारित होकर दूसरोंके उपकारोंको क्षणमात्रमें भूलकर अकृतज्ञ बुभुक्षु बना रहजाता है ।
पाठान्तर
मन्यन्ते साधवः ।
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