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ब्रह्मशान ब्राह्मणोंका अलंकार
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दोष, पाप, अन्याय तथा अकर्तभ्यसे आत्मसंकोच ही लज्जा है। समा जमें पापी होनेके अपयशकी शंका या विभीषिका लज्जा कही जाती है। मानवका अभ्युत्थान करनेवाली दैवी संपत्तिरूपी लज्जाका स्वरूप अकर्तव्यसे संकोच है। यह लज्जा स्त्रीपुरुष उभयसाधारण लज्जा है। पाप आसुरी प्रवृत्ति है । पापको गुप्त रखने की भावना अर्थात् गुप्त पाप करनेका स्वभाव लज्जा नहीं है। यह पापप्रवृत्ति है । यह स्वभाव मनुष्यकी पाप करनेसे रोकती नहीं किन्तु उसे छिपवाती है ।
(ब्रह्मज्ञान ब्राह्मणों का अलंकार )
विप्राणां भूषणं वेदः ।।३६६॥ वेद अर्थात् ब्रह्मज्ञान अर्थात् ब्रह्मवित् होना ब्राह्मणोंक! भूषण है।
विवरण- जातिमात्रोपजीवी अज्ञानी ब्राह्मण ब्राह्मणत्वसे पतित हैं । वह काठके हाथी या चामके कृत्रिम मृगके समान दिखावटी है।
योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम् ।
स जीवन्नेव शुद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः ॥ जो ब्राह्मण वेदज्ञान प्राप्त करके अन्य विद्यामों में श्रम करता है वह परि वारसहित शुद्र होजाता है ।
वेदमेव सदाभ्यस्येत् तपस्तप्स्यन् द्विजोत्तमः । वेदाभ्यासो हि विप्रस्य तपः परमिहोच्यते । यथा काष्ठमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृगः ।
तथा विप्रोऽनधीयानस्त्रयस्ते नाम विभ्रति ॥ (मनु) द्विजोत्तम बनने के इच्छुक सदा वेदाभ्यासमें रत रहे। वेदाभ्यास ही ब्राह्मणका सर्वोतम तप कहाता है । मनध्ययनशील ब्राह्मण, काठके हाथी या चर्मनिर्मित कृत्रिम मृग जैसा है । ये तीनों नाम ही नामके होते हैं । इनमें यथार्थता कुछ नहीं होती। महाभाष्यकर पतंजलिने कहा है-- "ब्राह्मणन