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________________ ४६० चाणक्यसूत्राणि 'न हि कस्तूरिकामोदः शपथेन विभाव्यते । कस्तुरीके आमोद के लिये शपथकी आवश्यकता नहीं पडती | आचरणकी न्यूनता ही आत्मश्लाघीके मनमें अपने न्यूनभागको वाणी से पूरा करने की प्रवृत्तिको उत्पन्न करती है । प्रशंसिताचरणी मानव आत्मतृप्तिकी अवस्था में समुद्र के भीतर-बाहर जलपूर्ण घडेके समान पूर्णावस्था में रहता है । जैसे क्षुद्र व्यापारी लोग विक्रेय पदार्थोंके निकम्मेपनको उसके मिथ्यागुणकीर्तन से ढक देना चाहा करते हैं, इसी प्रकार समाजको ठगने के इच्छुक धूर्त लोग अपने श्रोताओं को आत्मप्रशंसासे प्रतारित करनेका प्रयत्न करते हैं । भात्मश्लाघा बुद्धिमान् श्रोताओंको कटु भी लगती और वक्ताको निष्कपटता के विषय में संदेह भी उत्पन्न कर डालती है । सत्यकी ही महिमा गारा वाणीकी कुशलता है । अपने व्यक्तित्वका गुणगान तो वक्ताकी वाणीकी अोता है। अपने व्यक्तित्वका प्रचार करनेकी भावना प्रचारककी असत्यनिष्टा या मिध्यायशोभिलाषाका परिचायक होता है 1 ( मूढसमाज में आत्मकथा' के नाम से आत्मप्रशंसाकी प्रवृत्तिको बडा प्रोत्साहन मिल जाता है । आत्मकीर्तित पाप भी प्रशंसनीय महात्मापन बन जाने लगा है । मूढलोग अपने कानों को रद्दीको टोकरी बनाकर जो कोई कुछ सुनाने या पढाने लगे उसे ही सुनने और पढनेको प्रस्तुत होजाते हैं । हमारी श्रवणशक्ति हमपर हमारे विधीताकी पवित्र धरोहर है । इसलिये किसीकी आत्मप्रशंसा सुनने और आत्मकथा पढने में अपनी श्रवणशक्ति व्यय कर डालना बडी ही निकृष्ट मनोदशा है । लोगों की इस मौठ्यमयी स्थिति से अनुचित लाभ उठाना चाहनेवाले प्रभुतालोभी असुर प्रवृत्तिके लोगों ने राज्यसंस्थाको हथियाने के लिये आत्मप्रशंसाको राजनैतिक क्षेत्र में अनुचित महत्व दे डाला है और राजनीतिको विक्रेता व्यापारियोंकी विक्रेय वस्तु बना डाला है । क्योंकि अपना ढिंढोरा पीटकर, राजनीतिज्ञ बनकर, देशकी आंखों में धूल झोंककर, राज्यसंस्थाको इथिया लेने की परिपाटी कानून के द्वारा स्वीकृत होगई है इस कारण समाजने आत्मप्रशंसाकी निन्दनीयताको
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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