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दुःख से निस्तारेका उपाय
( दुःख से निस्तारेका उपाय ) तपसा स्वर्गमाप्नोति ॥ ५६९ ॥
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तपसे स्वर्गका लाभ होता है ।
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विवरण - इन्द्रियोंके द्वारा संसारको जानना ज्ञान नहीं है किन्तु सद सद्विचार - बुद्धिके द्वारा संसारके वास्तविक रूपको पहचान जाना ही 'वास्त विक ज्ञान ' है । संसारको इंद्वियोंके द्वारा जानना, चाहना तो अपनेको न जानना है | आत्मविस्मृति ही तो इंद्रियजनित संसार- ज्ञान है । मनुष्यका यह मायिक जगत् क्षणिक आत्मविस्मृतिमात्र है । इस दृष्टिसे संसारको इन्द्रिय भोग्य रूप से जानना अज्ञान है । अपने स्वरूप देद्दीको पहचान जाना ही ज्ञान है । ज्ञानीका संपूर्ण जीवन-व्यवहार सुखदुःखातीत स्थिति में रहकर होता है । उसका जीवन-व्यवहार सुखदुःखातीत स्थितिमें रहने के कारण सत्यकी सेवारूपी तपश्चर्या बन जाता है । इन्द्रियलौल्य या भोगासक्ति मानवके देवीका स्वभाव नहीं है । उसका स्वभाव तो जितेन्द्रियता और अनासक्ति है । यही कारण है कि ज्ञानी समाज में जितेन्द्रिय लोग पूजते और अजितेन्द्रिय सम्मानहीन होकर जीवन के दिन निष्प्रभता के साथ काटते हैं । देह इन्द्रियोंका पुतला है । चक्षु, कर्ण, नासिका आदि इन्द्रिय देवकी जीवितावस्था है । जबतक इन्द्रिय काम करती है तब तक ही देह जीवित रहता है । ज्ञानी और अज्ञानी दोनों ही इन्द्रियोंसे काम लेते हैं ।
जितेन्द्रिय ज्ञानी इन्द्रियों का उपयोग सत्यस्वरूप आत्मा के दर्शन तथा देहकी रक्षा के लिये करता है । वह आत्मदर्शन के लिये ही अपने देहकी रक्षा भी करता है । इसीको इन्द्रियोंके ऊपर देहकी प्रभुता भी कहते हैं और इसीको विदेहावस्था भी कहा जाता है । इन्द्रियाधीन या मजितेन्द्रिय मन तो अज्ञानकी स्थिति है । जितेन्द्रिय मन ही मनुष्यका स्वरूप है । इन्द्रियाधनि मन देहात्मबुद्धि में फँस गया होता है । देहात्मबुद्धि में फँसा हुआ इन्द्रि याधीन मन मात्मविस्मृतिरूपी अज्ञानकी स्थिति है । स्वतंत्र मन ज्ञान