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चाणक्यसूत्राणि
देहधारीको पुण्य पापमें से किसी एकके साधनके रूपमें मिला है। देहधारीको पुण्य पापके साधनरूप इस देहका अच्छेसे अच्छा उपयोग करनेकी कलासे पूर्ण परिचय होना चाहिये।
पाठान्तर- कृमिशकृन्मूत्रभाजनं शरीरम् । शरीर कृमि, विष्ठा तथा मूत्रका पात्र है। हीनपाठ है । पाठान्तर-पुण्यपापमेव जन्महेतुः। पुण्य पाप ही जन्मके कारण हैं । महत्वहीन पाठ है।
(दुःखका स्वरूप ) जन्ममरणादिषु दुःखमेव ।। ५६८॥ जन्म-मरण आदियोंमें दुःख ही दुःख है। विवरण-जन्म-मरणके अधीन रहनेवाले इस नाशवान देहको अपना स्वरूप समझ बैठने वाली देहात्मबुद्धि रूपी अज्ञान ही दुःख है। देही जन्ममरण दोनोंसे सतीत है। जन्ममरणातीत देहीको अपना स्वरूप समझ जाना ही दुःखातीत अखंर सुखमयी, चिरशांतिदायिनी, ज्ञानमयी, पावनी स्थिति है । जन्म, मरण, रोग, शोक, ताप, बंधन तथा विपत्तियोंकी भ्रान्तिमें फंसे रहने में दुःख ही दुःख भरा है। इनकी भ्रांतिमें फंसे रहनेसे ही मनुष्यको दुःखी बनाया है । वास्तविकता यह है कि मनुष्यका देही न तो जन्मता है न मरता है और न यह अन्य किसी असुविधा या विपत्ति में फंसता है । देह ही जन्मता, मरता तथा अन्य कष्ट भोगता है । देहीको तो जन्ममरणादिका धोका ही धोका है । देही मानवको अपना यह मजन्मा, मजर, अमर, सनातन, सकलभूत साधारण रूप पहचानना है। अपना स्वरूप जान देना ही देहीका ज्ञान है । जन्मने, मरने तथा कष्ट भोगनेवाले देहमें भ्रान्तिभरी देहात्मबुद्धि रखना ही उसका अज्ञानरूपी दुःख है और यही उसका दुःखमें इबे रहना भी है । देहीके स्वरूपको न समझना ही उसका दुःख बन गया है।