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( दान स्वहितकारी कर्तव्य ) दानं धर्मः ।। १५५ ॥
चाणक्यसूत्राणि
दान ( अर्थात् योग्य पात्रकी सहायता करना ) धर्म ( मनुव्यका स्वहितकारी कर्तव्य ) है ।
विवरण - सत्यके हाथमें आत्मदान किये रहनेवाले दाता तथा प्रतिग्रहीताका सत्यार्थ व्यवहारविनिमय ही सच्चा दान है । धनार्थी सुपात्रको ही धनका सच्चा स्वामी जानकर दीयमान धनको अपने पास रखी हुई योग् पात्रकी धरोहर मानकर उसकी धरोहर उसीको सौंप देना दानकी परिभाषा या दानका आत्मा है। किसी संसारी लाभकी दृष्टिसे किसीको कुछ धन या भोजन, वस्त्रादि दे देना दानका आत्मा नहीं है । दाता के घमंडी आसन पर बैठे रहने और दानका कुछ विनिमय चाहते रहने से दानका स्वरूप प्रकट नहीं होता । दानका भरमा तब पूरा होता है जब वह दातासे आत्मदान करा लेता है । जो मनुष्य अपना दातापन भूलजाता है और कार्यार्थी होकर आनेवाले को ही स्वाधिकारान्तर्गत वस्तुका यथार्थ स्वामी जानकर अर्थात् उस पदार्थको उसीकी धरोहर मानकर ऋणमुक्त होनेकी भावनाके साथ दान करता है, उसके मनमेंसे दाता और प्रतिग्रहीताका भेद ही लुल होजाता है । यही दानका सच्चा रूप होता है ।
मनुष्य के साथ मनुष्य का लेने देनेका व्यवहार चलता ही रहता है । इस व्यवहारविनिमय में स्वार्थकी भावना भी रह सकती है और मानवधर्मरूपी दानधर्म भी विराजता रह सकता है । पिता के साथ पुत्रका पालनपोषण, तथा सेवा आदिका, आचार्योंके साथ अन्तेवासियोंका बाचार, शिक्षा तथा सेवाका, मित्रोंके साथ दान प्रतिदान सहयोग सहायता आदिका, समाजके साथ व्यक्तिका आदान प्रदानका संबन्ध चलता रहता तथा राष्ट्रके साथ नागरिकों का सेवाका संबन्ध बना रहता है। इस पारस्परिक व्यवहारविनिमय में कहीं तो स्वार्थकी भावना पाई जाती है, तथा कहीं मानवधर्म