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दान स्वहितकारी कर्तव्य
रूपी दानधर्म पाया जाता है । सच्चा व्यवहारविनिमय ही दान है। जब ज्यवहारविनिमयमें सचाई माजाती है तब ही वह दान कहानेका अधिकारी बनता है । दाता तथा प्रतिग्रहीता दोनों से किसी के भी मनमें पारस्परिक लुण्ठनका विचार न भाकर व्यवहारविनिमय होना ही दानधर्मका सर्वोत्तम क्षेत्र है। दानकी इस परिभाषाके अनुसार सच्चा दाता वही है जो विनि. मयके लोभसे बात्मप्रतारित नहीं होता, तथा दानके नामसे किसीका लुण्ठन करमा नहीं चाहता। सम्मा प्रतिग्रहीता वही है जो भिखारी बनकर दाताको लगने या किसी दाता नामधारीकी ठगईमें मानेकी भ्रान्तिके अतीत है । यही दाता तथा प्रतिग्रहीताके पानापात्रकी सच्ची कसौटी है।
जो मनुष्य इस प्रकार दान करना या उसे स्वीकार करना जान जाता है, वह भमर धनका स्वामित्व पालेता है । वह दाता और ग्रहीताकी एकताको पहचान कर समस्त धनोंके एकमात्र अक्षय स्वामीके साथ सम्मिलित होजाता है। उसके सर्वभूतात्मदर्शी विशाल मनमें से किसी भी धनपर व्यक्तिगत स्वार्थमूलक अधिकार रखनेको भावना लुप्त होजाती है। अधिक क्या, यह सारा ही संसार उसकी संपत्ति बन जाता है। " सर्व स्वं ब्राह्मण. स्वेद यत्किंचिज्जगतीगतम् ।” संसारमें जितने भी धन हैं वे सब ब्रह्मदर्शी विद्वानोंकी सम्पति हैं । जो इस प्रकार दान करना जान जाता है वह अमर धनका स्वामित्व पालेता है । यह सारा ही संसार उसकी संपत्ति हो जाता है। ऊपर कहा जाचुका है कि दूसरोंका अधिकारपहरण न करना अर्थात् सार्वजनिक कल्याणमें अपना कल्याण समझना ही दान या मानवधर्म है।
भाइये राज्यतन्त्रके सम्बन्धमें दानधर्मपर विचार करें। राज्यतन्त्र में राज्या. धिकारी इस दान नामक मानवधर्मसे हीन होजाय तो वह कार्यार्थियोपर राज्यशक्तिका दबाव डालकर उनसे अनधिकारपूर्वक धनापहरण करनेकी सुविधा पाजाता है । यही अयोग्य राज्याधिकारियोंकी वह दानविरोधी अधार्मिक मनोवृत्ति होती है जो उनसे राष्ट्रका अपहरण कराती और अपने शुद्र पेटके लिये राष्ट्रके चरित्रका विनाश करती है। दूसरोंका अधिकारा