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चाणक्यसूत्राणि
शिक्षाका मुख्य ध्येय मनुष्यताविरोधी म्लेच्छ रुचि रीति रहनसहनको समाजमें प्रवेशाधिकार न लेनेदेना है। म्लेच्छपन किसी भौगोलिक सीमामें सीमित नहीं है। नीचलोगोंकी नीच प्रवृत्ति ही म्लेच्छ मनोवृत्ति के रूप में मात्मप्रकाश करने का अवसर ढूंढा करती है। 'यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति ।' जब कभी मनुष्यसमाजमें धार्मिक लोगों का प्रभाव मन्द पड जाता है तब ही संसारमें म्लेच्छवृत्ति बल पकड़ लेती है। पाठान्तर--- न म्लेच्छभाषणं शिक्षेत् ।
( संघटन म्लेच्छोंसे शिक्षणीय ) म्लेच्छानामपि सुवृत्तं ग्राह्यम् ॥ ३०४ ॥ म्लेच्छोंसे भी सुवृत्त सीख लेना चाहिये । विवरण- म्लेच्छ भो हो तथा वह कोह सुवृत्त भी रखता हो यह परस्पर विरोधी पात है । इसलिये भाइये ढूंढें कि यह सूत्र कौनसे म्लेच्छसुवृत्तको सिखाना चाहता है ? म्लेच्छों में केवल एक ही सवृत्त पाया जाता है कि वे अपने म्लेच्छ स्वभाव में सुदृढ रहने का हठ नहीं त्यागते । अपने स्वभावमें दृढ रहने का हठ ही उनसे सीखने की अनुकरणीय वस्तु है । उनकी दृढता ही उनका सुवृत्त है । म्लेच्छदमन करने के लिये हमारे म्लेच्छ द्वेष में भी म्लेच्छों जैसी दृढता तथा संगठन होना चाहिये ।।
शठ शाठ्यं समाचरत् । आयसैरायसं छेद्यम् ॥ शठके साथ शठताभरा व्यवहार करना चाहिये । लोहोंको लोहोंसे ही काटना चाहिये।
गणे न मत्सरः कतेव्यः ॥ ३० ॥ असहिष्णु बनकर गुणी के गुणों को उपेक्षित न करो। विवरणा --- गुणद्वेषी न होकर गुणप्राही होना चाहिये । गुणीके गुणसे द्वेष या घृणा करनेवाले को दोष प्यारे लगते हैं । दोषों से प्यार करना दुष्टता है । गणोंसे मत्सर करना दुष्ट स्वभाव है। गुणमामय से समाज में ज्ञानका निरादर होता तथा हिंसा द्वेष भात्मक लहक। वातावरण बन जाता है। गुग. द्वेषिता मसुर स्वभाव है । गुणको देखकर तो हर्प होना चाहिये ।