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________________ चाणक्यसूत्राणि दुःख न मानकर उसे संसारकी नियमावलीका एक अकाट्य अंग मानकर कर्तव्यबुद्धिसे सामर्थ्याधोन प्रतिकार या सहनें करने से ही दुःखकी दुःख दायिता मिटाई जा सकती है । दुःख संसारसे हट नहीं सकता । मनुष्यको बुद्धि हो तो वह दुःखोंके विषय में अपना दृष्टिकोण, परिवर्तित करके उन्हें दुःख - कोटि में से निकाल बाहर करके कर्तव्यका अवसर मानकर सच्चे सुखी हो सकते हैं। इस प्रकारका बुद्धि-परिवर्तन किये बिना अपनी संसारयात्राको दुःखसे रीता नहीं बनाया जा सकता । कुछ लोग इस प्रकारके होते हैं जिन्हें न सुखकी इच्छा होती है और न कभी दुःखोंसे डरते हैं । ये लोग सुखके साथ ' आगते स्वागतं कुर्याद् गच्छन्तं न निवारयेत् ' वाली नीति अपनाकर उनकी ओरसे निर्विकार रहकर अपने इस शतवार्षिक जीवनयज्ञ में अपनी कर्तव्य पालनकी आहुति डालते चले जाते हैं और अपने जीवनको अमर सनातन विश्वव्यापी जोवनमें विलीन देखनेकी कलाकी पुनः पुनः आवृत्तियाँ करते रहते हैं । ४३८ ये लोग प्राकृतिक प्रबन्धानुसार अपने पास आनेवाले भोतिक दुःखों को कर्तव्यबुद्धिसे व्यर्थ करते हुए भी उनके छूटने न हटनेके प्रति निरपेक्ष बने रहते हैं । ये लोग अपनेको जानबूझ कर तपस्वो, संयमी, सहिष्णु, कठोर जीवन में आबद्ध रखकर दुःखद समझी हुई अवस्थाओं को अपना मधुभक्षण जैसा रुचिकर स्वभाव बना लेते हैं और जीवनभर सुखदुःखातीत नित्य सुखी रहने की कलाका आनन्द लेते रहते हैं । ऐसे लोगोंका न तो कभी स्वर्गसे पतन होता है और न कभी दुःखरूपी नरक इनके पास तक आनेका साहस करते हैं । - अपने देश में इस प्रकार के सुखदुःखातीत विश्वविजयी मनुष्य उत्पन्न करना देश के शिक्षा - शास्त्रियोंका उत्तरदायित्व है । साधारण मानवकी स्वर्गकल्पनाकी भयानक मूर्तिके संबन्ध में भर्तृहरिने कहा है- ' विपाकः पुण्यानां जनयति भयं मे विमृशतः ।' मैं जब पुण्यके विपाकपर विमर्श करने बैठता हूँ, तो मुझे बडा भय प्रतीत होता है । पुण्यसे सुख, सुखसे प्रमाद, प्रमादसे पाप, पापसे दुःख, उससे पुण्यवासना, " उससे पुण्य
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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