SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 466
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मानव सुख चाहता है " और फिर सुख प्रमादादि । यों यह समाप्त नहीं होता। मुझे इस चक्रपर झूलते रहनेवाले बालकों के समान घूमते लगी है । मैं तो सुखदुःख दोनोंका बन्धन तोड डालना चाहता हूँ । वास्तविकता यह है कि भौतिक सुख पाना नामकी कोई भी अवस्था मानव के लिये स्पृहणीयें नहीं होनी चाहिये । कर्तव्यपालना ही एकमात्र वह अवस्था है जिसकी मानवको स्पृहा होनी चाहिये । भौतिक सुखोंका तबतक कोई मूल्य नहीं है जबतक मनुष्यका मनुष्योचित मनोविकास या उसे ज्ञानलाभ न हुआ हो । मनुष्य यह जाने कि जबतक वह संसारकी सच्ची परिस्थिति, आवश्यकता और लक्ष्यको नहीं समझ लेगा तबतक उसका सुख-नाश तथा दुःख - प्राप्तिका रोना कभी समाप्त नहीं होगा । पाठान्तर --- न च स्वर्गफलं दुःखम् । ४३९ पुण्यपापोंके परिपाकका चक्र कभी भारूढ होकर चक्करवाले झूलेपर रहना मूढ अवस्था प्रतीत होने स्वर्ग व स्थिति है जिसमें दुःख नहीं होता । अथवा दुःख स्वर्ग अर्थात् सुकृतका फल नहीं है । ( मानव केवल वर्तमान में सुख चाहता है ) देही देहं त्यक्त्वा ऐन्द्रपदं न वांछति ॥४८४ ॥ arter देह इतनी आसक्ति होती है कि वह वर्तमान देह छोडकर ऐन्द्रपद तक लेना नहीं चाहता । विवरण- इससे पाठक मानवका यह स्वभाव समझने का प्रयत्न कर कि मानव ( देहधारी ) मरकर सुखी होना नहीं चाहता । मरकर सुख चाहनेकी उसकी इच्छा उधारी और काल्पनिक है । भौतिक सुखके लिये मृत्यु वरण अस्वाभाविक स्थिति है । पाठान्तर देही देहं त्यक्त्वा ऐन्द्रपदं वांछति । जैसे भारवाही ग्रीष्मयात्री विश्राम के लिये शीतळ छायाबाले वृक्षमूल में जाना चाहता है इसी प्रकार संसारी दुःखोंसे पराभूत अज्ञानी मानव
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy