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मानव सुख चाहता है
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और फिर सुख प्रमादादि । यों यह समाप्त नहीं होता। मुझे इस चक्रपर झूलते रहनेवाले बालकों के समान घूमते लगी है । मैं तो सुखदुःख दोनोंका बन्धन तोड डालना चाहता हूँ । वास्तविकता यह है कि भौतिक सुख पाना नामकी कोई भी अवस्था मानव के लिये स्पृहणीयें नहीं होनी चाहिये । कर्तव्यपालना ही एकमात्र वह अवस्था है जिसकी मानवको स्पृहा होनी चाहिये । भौतिक सुखोंका तबतक कोई मूल्य नहीं है जबतक मनुष्यका मनुष्योचित मनोविकास या उसे ज्ञानलाभ न हुआ हो । मनुष्य यह जाने कि जबतक वह संसारकी सच्ची परिस्थिति, आवश्यकता और लक्ष्यको नहीं समझ लेगा तबतक उसका सुख-नाश तथा दुःख - प्राप्तिका रोना कभी समाप्त नहीं होगा ।
पाठान्तर ---
न च स्वर्गफलं दुःखम् ।
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पुण्यपापोंके परिपाकका चक्र कभी भारूढ होकर चक्करवाले झूलेपर रहना मूढ अवस्था प्रतीत होने
स्वर्ग व स्थिति है जिसमें दुःख नहीं होता । अथवा दुःख स्वर्ग अर्थात् सुकृतका फल नहीं है ।
( मानव केवल वर्तमान में सुख चाहता है )
देही देहं त्यक्त्वा ऐन्द्रपदं न वांछति ॥४८४ ॥
arter देह इतनी आसक्ति होती है कि वह वर्तमान देह छोडकर ऐन्द्रपद तक लेना नहीं चाहता ।
विवरण- इससे पाठक मानवका यह स्वभाव समझने का प्रयत्न कर कि मानव ( देहधारी ) मरकर सुखी होना नहीं चाहता । मरकर सुख चाहनेकी उसकी इच्छा उधारी और काल्पनिक है । भौतिक सुखके लिये मृत्यु वरण अस्वाभाविक स्थिति है ।
पाठान्तर
देही देहं त्यक्त्वा ऐन्द्रपदं वांछति ।
जैसे भारवाही ग्रीष्मयात्री विश्राम के लिये शीतळ छायाबाले वृक्षमूल में जाना चाहता है इसी प्रकार संसारी दुःखोंसे पराभूत अज्ञानी मानव