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सबसे बड़ा दुःख
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( सबसे बडा दुःख ) न च स्वर्गपतनात् परं दुःखम् ॥ ४८३॥ साधारण मानवके लिये भौतिक सुख-नाशसे बढकर कोई दुःख नहीं होता।
सुखाच्च यो याति नरो दरिद्रतां,
धृतः शरीरेण मृतः स जीवति । प्राप्त भौतिक सुखों का विनाश, पहले कभी सुख न मिलनेसे अधिक दुःखदायी होता है । आँख पाकर उन्हें खो बैठनेवालेको जन्मान्धकी अपेक्षा मधिक कष्ट होता है । सदासे नगदीन अँगूठी उत्तनी बुरी नहीं लगती जितनी नग निकाली हुई लाती है । सुखका नियम है कि वह दुःखोंको भोग लेने के पश्चात ही मीठा लगता है। ___सुखं हि दुःखानुभूय शोभते ।'
जो मनुष्य दुःखों की जान कर बेच्छाले भोगता है अर्थात् मापात दृष्टि से अष्टप्रद समझ तपस्वी जीवनको अपना स्वभाव बना लेता है उसके पास जीवनभर दुःख नहीं फटकता। उसे सुखकी भावश्यकता ही नहीं रहती। उसे सुखकी आवश्यकता न रहना ही उसका सुखी होना होजाता है । सुखाभिलाषी लोग अनिवार्यरूपसे दुःखद्वेषी होते हैं । सुख सुखाभिलापियों के पास से सदा ही ( नियमसे ) अनुपस्थित रहते हैं। अभिलाषाका यह नियम है कि वह जिसके साथ लग जाती है उसे ही अनुपस्थित बना डालती है । मुखके साथ अभिलाषाका सम्बन्ध होते ही सुख मानवजीवनमें से अनुपस्थित होजाता है। इसी प्रकार दुःखद्वेषीके पाससे दुःख कभी नहीं हटते।
मूढ अश्वको डरानेवाली उसीकी छायाके समान दुःख मनुष्यकी एक काल्पनिक बिभीषिका है। जो दुःखसे डरता है, दुःन (अपनेसे डरने. वालोंको ही चिपटनेवाले भूतोंके समान ) उसीको जा चिपटता है। दुःखको