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मनुष्यका सबसे बडा वैरी
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भोगप्रवृत्तिको अपना स्वभाव मानलेना अज्ञानरूपी अहंकार है । अज्ञानी मनुष्य के पास आत्मतृप्ति नामकी कोई अवस्था नहीं होती। वह संपूर्ण जगत्को अपने भोग्य रूपमें देखना चाहता है। जगत्को अपने भोग्य रूपमें देखना और जगत्के पदार्थोंको देख-देखकर अपने मनमें कामाग्नि सुलगा लेना ही बन्धन है। यही कामना है। यही दुःख है। कामाग्नि रूपरमादि विषयों की माहुतियोंसे नहीं बुझती । कामाग्निका बुझते रहना ही मनुष्य. जीवनकी अखण्ड शान्तिका भादर्श है। अपनी इन्द्रियों को ही अपना स्वरूप समझकर, उन्हींको भोक्ता मानकर भोगबन्धनमें फंसजाना अज्ञान है । देहको कर्ता भोक्ता न मानकर देहके स्वामी देहीको अपना स्वरूप समझ जाना ही ज्ञान है । देही स्वभावसे नित्य मुक्त रहनेवाली सत्ता है ।
जब मनुष्य अपने इस रूपसे परिचित हो जाता है तब भोगोंकी कीचड. मेंसे निकल जाता तथा उसका बन्धनरहित स्वभाव विजयी होजाता है। मज्ञानरूपी भोगबन्धन मनुष्यका परम शत्र है । भोगबन्धन ही राज्याधि. कारियोंको कर्तव्यभ्रष्ट करनेवाला उनका परम शत्रु है । भोगनिरपेक्षतारूपी ज्ञान ही राज्याधिकारियोंकी प्रतिष्ठा बढानेवाला परम मित्र है । स्वयं ज्ञानी बनकर रहना ही अपने समाजको भी ज्ञानी बनाने वाला मनुष्योचित कर्तव्य. पालन है । समाजका शत्र बनना समाजका ही द्रोह नहीं किन्तु आत्मद्रोह भी है । यह विश्व अपने विधाताका एक विराट परिवार है। प्रत्येक प्राणी इस विश्वपरिवारका पारिवारिक है। सब ही जीवनाधिकार लेकर संसारमें माये हैं। सबके जीवनाधिकारको उदारतासे स्वीकार करनेसे ही संसारमें सुखका स्वर्ग उतर सकता है । परन्तु अहंकारका जो एक दषित रूप है वहीं दूसरों के अधिकारको उदारतापूर्वक स्वीकार करनेसे रोकता है। अहंकार मनुष्यको मनुष्यका शत्रु बनादेता है । मनुष्यों में जो भेद पडता है वह उनके मिथ्या अहंकारसे ही पडता है । देहात्मवाद ही भेद और विवादका मूल है । मनुष्य को जानना चाहिये कि हम लोग देहों से अलग-अलग होने. पर भी देही रूपमें सब एक हैं । हम सबके समान लक्ष्य हैं। अपने में मानवताका पूर्ण विकास ही मानवमात्रका लक्ष्य है । इस लक्ष्यको पाले नेपर