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शान देहोत्पादक समाजके अनुसार
(नमता असामाजिक स्थिति)
न ननो जलं प्रविशेत् ।।४०७।। नग्न होकर जलमें न घुसे। विवरण- नग्नता दृष्टि कालुष्यकारी प्रवृत्ति है। नग्न होकर जलमें घुसने तथा जल से निकल कर वस्त्र धारण करनेतक रहनेवाली नग्नता शिष्टाचार विरुद्व है। नग्न होकर जलप्रवेशसे सुकोमल मूत्रस्थान पर जल जीवों के दंशनकी सम्भावना भी रहती है तथा इस प्रकारका व्यवहार, निर्लजता तथा शिष्टाचारका परित्याग भी है। यह प्रवृत्ति सामाजिक सद्. गुणोंकी विनाशक होने से त्याज्य है । जलप्रवेश ही नहीं, मनुष्यको मार्गगमन, भोजन, शयन, आदि किसी भी अवस्थामें नग्न नहीं रहना चाहिये। नग्नता सामाजिक सुरुचिपर पाशविक अत्याचार है । नग्न विचरणका केवल पशुको प्रकृतिदत्त अधिकार है । मनुष्यकी ल जारूपी देवीसंपत ने नग्न रहना मनुष्यके लिये निषिद्ध बना डाला है। इस सूत्र में उसी निषेधको पुष्ट करने के लिये नग्नताके विरोधमें यह सावधानवाणी घोषित की है कि समाजकी दृष्टि में नग्न होनेकी बात तो अलग रही लोकचक्षुके बाहर जल में भी नग्न होना निन्दनीय है । नग्नता समाजद्वेषी पशुसुलभ बर्बरता है। पाठान्तर-न नग्नः प्रविशेजलम् ।
( ज्ञान देहोत्पादक समाजके अनुसार )
यथा शरीरं तथा ज्ञानम् ॥४०८॥ जैसा शरीर वैसा ही ज्ञान होता है। विवरण- मनुष्य का ज्ञान उसके शरीरको जन्म देनेवाले समाज जैसा ही होता है । भाइये, ज्ञानके शरीरके अनुरूप होनेके अर्थपर विचार करें। मानवदेह तो मनुष्यमात्रने धारण कर रखा है परन्तु इस मानवदेहमें मनुष्यताको प्रस्फुटित करनेवाला ज्ञानोदय हो यही इसकी स्वाभाविक स्थिति है । परन्तु दुर्भाग्यसे प्रत्येक मानवदेहधारी ज्ञानी नहीं होता। यह
२४ (चाणक्य.)