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चाणक्यसूत्राणि
एक गंभीर प्रश्न है कि मनुष्य मानवताके समान अधिकारी मानवदेहको धारण करके भी परस्पर वध्यघातक मानसिक स्थितियों को क्यों अपनालेता है ? इस सूत्रमेंसे इसी प्रश्नके उत्तरका उद्धार करनेकी आवश्यकता है। यदि इस सूत्रसे इस प्रश्नक सदुत्तरका उद्धार नहीं किया जायगा तो यह सूत्र निरर्थक हो जायगा। __ मानवदेह इस मर्त्य भूमिपर उतरकर पालापोसा जाता है । उस पालन. पोषणके ढंगमें ही उसके शरीरकी भिन्नताकी कल्पना की गई है । बात यह है कि शरीर शब्दके भीतर देह और बुद्धि दोनों ही सम्मिलित हैं । इसलिये सम्मिलित हैं कि देहका परिचालन करनेवाली बुद्धि भी मनुष्यका देह जैसा हो साथी होता है । मनुष्यदेह जिस वातावरणमै, जिस समाजमें, जिन उपकरणोंके साथ भूमिष्ठ होकर शैशव, बाल्य, यौवन आदि अवस्थायें पाकर पूरा देहधारी बनता है, उसमें उन उपकरणों, न वातावरणों तथा उन समाजों का पूर्ण प्रतिबिम्ब विद्यमान रहता है। इस दृष्टि से मनुष्य का देह अपने जन्मदाता माता-पिताके तथा संपूर्ण समाजके प्रभावसे प्रभावित रहकर जिस रीतिसे निर्मित और पालित होता है उसका ज्ञान अनिवार्य रूपसे उसीके अनुरूप या तो मनुष्योचित या मनुष्यताधाती होता है। __ अथवा-शरीर स्वस्थ, शुद्ध-वंशज हो तो ज्ञान विषद, प्रखर तथा कार्यकारी होगा। शरीर रोगो, क्षीण या अशुद्ध-वंशज होगा तो ज्ञान निष्प्रभ, अस्पष्ट अकार्यकारी होगा।शरीरकी निरोगता तथा शरीरको जन्म देनेवाले समाजकी शुद्धतारूपी तपस्यासे ज्ञानका विकास होता है।
ज्ञान माध्यात्मिक तथा भौतिक भेदसे स्थूलतः द्विविध है परन्तु समाजविज्ञान, शरीर-विज्ञान, पदार्थ-विज्ञान, शिल्पकला-विज्ञानादि भौतिक ज्ञान अनेक प्रकारका है। जिस समाजमें ज्ञानके संग्रहको जैसी प्रवृत्ति होती है उस समाजमें आनेवाले बालक उसी प्रकारका ज्ञान सीख जाते हैं ।
गवाशनानां स शृणोति वाक्यमहं हि राजंश्चरितं मुनीनाम् । न तस्य दोषो न च मद्गुणों वा संसर्गजा दाषगुणा भवन्ति ।।