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चाणक्यसूत्राणि
( शास्त्राभावमें शिष्टाचार ही शास्त्र) शास्त्राभावे शिष्टाचारमनुगच्छेत् ॥ ४७०॥ जिसे शास्त्रका ज्ञान न हो या जिसका विवेच्य विषय शास्त्र में अवर्णित हो वह शिष्टाचारको माने।
विवरण- सूत्र कहना चाहता है कि श्रुति, स्मृति, इतिहास, पुराण, धर्मशास्त्र न जाननेवाले लोग धर्मिष्ठ विद्वानों के आचरणोंको ही शास्त्रोपदेशके समान प्रमाण मानकर तदनुसार आचरण करें। मनुष्य जाने कि धार्मिक लोगोंके आचरण ही तो शास्त्रों में लिखे हुए हैं । इसीलिये धर्मशास्त्रों में वर्णित शिष्टाचार, कुलाचार, देशाचार, स्त्र्याचार आदि धर्म में प्रमाण माने हैं।
न पाणिपादचपलो न नेत्रचपलो मुनिः ।
न च वाग्भंगचपलो इति शिष्टस्य लक्षणम् ॥ शिष्ट वे हैं जिनके हाथ, पैर, नेत्र, वाणी आदि चपल न होकर मानव. जीवनके लक्ष्य में पूर्ण संयत हैं । शिष्ट वे हैं जो न मनधिकृत काममें हाथ लगाते, न अनधिकृत स्थानपर पैर रखते, न पापदष्टि से किसीको देखते
और न किसीसे असंयत भाषण करते हैं। शिष्टोंका समाजको धर्मभावना सिखानेका जो महान् उत्तरदायित्व है उसे ध्यानमें रखकर वे लोग मति सावधान जीवन बिताते हैं।
(शिष्टाचार शास्त्रसे अधिक मान्य )
नाचरिताच्छास्त्रं गरीयः ॥४७१।। शास्त्रका महत्व शिष्टाचारसे अधिक नहीं है। विवरण- शास्त्रका व्यावहारिक रूप ही तो शिष्टाचार है। यही कारण है कि शास्त्र और शिष्टाचारके विरोध शिष्टाचार ही प्रामाणिक और अनु. सरणीय माना जाता है । शास्त्र लोगोंको इतना नहीं सिखाता जितना शिष्टा. चार सिखाता है। शास्त्रानभिज्ञ लोग भी शिष्टाचार-परम्पराके अनुसार धार्मिक जीवन बिताते चले जाते हैं । शिष्टाचार शास्त्र-ज्ञान प्राप्त न कर