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चाणक्यसूत्राणि
अपने मनको सदा मज्ञानरूप नरक में फंसा रखता है। उसकी मुक्तिका प्रश्न ही कहा है ? पाठान्तर- विश्वासघातिनो निष्कृतिर्न विद्यते ।
(दुर्घटनाओंसे मत घबराओ )
देवायत्तं न शोचेत् ॥ ५२४ ॥ मनुष्य देवाधीन दुर्घटनापर व्यर्थ चिन्ताग्रस्त न हुआ करे। विवरण- मनुष्य अपना सम्पूर्ण बल लगाकर भी जब यह देखे कि यह काम मेरे वशका नहीं है तब उसे देव या ईश्वरेच्छा मानकर, दुश्चिन्ता छोड कर या देवाधीन बातको अधिक से अधिक शक्ति प्रकट करनेकी देवी प्रेरणा मानकर उसका कोई प्रबलतम उचित उपाय कर सके तो करे ।
भूकम्प, जलाप्लावन, आंधी, महामारी, दुर्मिक्ष, राष्ट्रविप्लव मादि शक्तिवाह्य परिस्थितियों में चिन्ताग्रस्त न होकर अपने सामर्थ्य तथा कौश ल के अनुसार विधान करते चले जाना मनुष्यका कर्तव्य है। जीवनेच्छा रहने तक मनुष्यका यह कर्तव्य किसी भी प्रकार समाप्त नहीं होता । कभी कभी प्रयत्नों के प्रतापसे भयंकर निराशाके पश्चात् भी आशाकी किरणें दीख पडती हैं। कभी कभी ऐसे भी बिकट समय आते हैं जब मर जाना ही रामकी इच्छा होती है। उस समय हाय हाय कर के मरने की अपेक्षा शान्ति. पूर्वक रामकी अचिन्त्य इच्छा या भवितव्यता माताकी सर्वसंहारी प्यारी गोदमें प्रसन्नता के साथ विलीन होकर मुख छिपाकर ) रामके प्रलय नाट. कका अभिनायो बन जाने में ही मानवका कल्याण होता है। मनुष्य जाने कि वह इस संसारमें सदा रहने के लिये नहीं आया। मरना अनिवार्य हो तो तड़प-तड़प कर मरना इस ईश्वरदत्त मरणावसरका महादुरुप. योग है । यदि मनुष्य इस भयंकर समझी हुई अवस्थाका सबसे अच्छा उपयोग कर सकता है तो वह मोतका सहर्ष स्वागत करके ही कर सकता है। मवश्यंभावी मौत को अपनी मानस शक्तिले प. भूत कर के विजयी बन. कर मरनेमें ही मानव कल्याण है । बताइये इस सम्बन्ध मनुष्य इससे अच्छा और कर ही क्या सकता है ?