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चाणक्यसूत्राणि
विवरण- मूर्ख लोग सद्वचन सुभाषित तथा द्वितभाषणको प्रतिकूल माना करते हैं। बातोंसे उनका दुःसाहस बढ जाता है। इनसे विवाद करके इन्हें किसी सत्य सिद्धान्तपर मारूढ नहीं किया जासकता। ये सदुपदेटाकी अवहेलना किया करते हैं। बातोंसे इनका दुःसाहस नहीं बढाना चाहिये।
(दुष्टोंको बलसे समझाना संभव )
मूर्खेषु मूर्खवत् कथयेत् ॥२३१॥ मूोसे सजनताका व्यवहार न (करके उनके साथ उनकी समझमें आनेवाली दण्डकी भाषामें व्यवहार ) करना चाहिये।
विवरण- जिसे जो बात या जो ढंग बोधगम्य या अभ्यस्त हो, उससे उसी ढंगमें बात करनी चाहिये । जैसे भैंस केवल डंडेकी भाषा पहचानती है, इसी प्रकार मूर्ख लोग सज्जनताकी किसी बातको नहीं समझते । वे केवल दण्डकी भाषा पहचानते हैं। उनसे उनकी प्रहणशक्तिकी योग्यताके विपरीत उदार भाषामें व्यवहार नहीं करना चाहिये ।
अथवा- मूर्खको मूर्खता रोकनेका उपदेश न देकर उससे ऐसा बर्ताव करो जिससे वह स्वयं अपनी मूढताका दुष्परिणाम भोग सके (दण्ड पा सके ) और भागेके लिये अनुभव प्राप्त कर सके। कोई श्रोता हृदयका पूर्ण विकास हो जानेकी स्थितिमें जिस बातको समझ सकता है, वही बात हृदयकी मषिकसित स्थितिमें दूसरे श्रोताके लिये अयोध्य होनेके कारण त्याज्य होजाती है। हृदयका विकास यथोचित कालकी प्रतीक्षा किया करता है। उस काल में जिन मभिज्ञताओंकी अत्यावश्यकता होती है उन्हें वाक्यमात्रसे किसीकी बुद्धिका गोचर नहीं किया जासकता। इस दृष्टि से भरसिकके सामने रस-निवेदनके समान अविकसित हृदयवालोंको विकसितहृदयग्राह्य बातें बताना अपात्र मूढको सुपात्र समझनेकी भ्रान्ति है । वचनका शक्तिशाली वीर्यवान होना तब ही संभव है जब कि वक्ता वचनप्रयोगमें किसी प्रकारकी भूल न कर रहा हो । यदि वक्ता वचन-प्रयोगमें मभ्रान्त न होगा तो वचनका व्यर्थभ्रलाप होजाना भनिवार्य है ।