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युद्धका अवसर
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मनुष्य विग्रह वहां न करे, जहां वह अशान्तिका कारण हो । क्योंकि अशान्तिदमन और शान्तिस्थापन ही विग्रहका उद्देश्य होना चाहिए । शान्तिप्रिय निर्बल व्यक्तिसे भी विग्रह करना कभी उचित नहीं है । हां, यदि निर्बल दुष्ट हो तब तो उससे विग्रह करना अनिवार्य ध्य होता है । जब कि विग्रहका उद्देश्य शान्तिस्थापना और अशान्तिका दमन करना है तब भशान्तिकारक मनुष्यको क्योंकि वह निर्बल है केवल इस लिये क्षमा नहीं किया जा सकता । शान्तिद्रोही निबल शत्रसे तो युद्ध प्रत्येक अवस्थामें करना चाहिये । परन्तु किसी बलवान्से हारजानेके लिये लडपाना भी नीति नहीं है । सुनिश्चित विजय होनेपर ही युद्ध करना चाहिये । सारांश यह है कि विग्नह सदा अपनेसे निबल दुष्ट के साथ ही उनना चाहिये । प्रौढ दुष्ट से तत्काल युद्ध न करके उसे अचिर भविष्य में इरादेने योग्य बलवान बनने के लिये जागरूक होकर रहना चाहिये और युद्धको टालते रहना चाहिये।
युद्ध का उद्देश्य अशान्तिकारकका दमन और शान्तिको स्थापना होना चाहिये । शान्तिप्रेमी राजा अशान्त्युत्पादक शत्रुधर भाक्रमण करनेसे पहले शत्रको शक्तिका ठीक ठीक पता लगाकर ही शत्रदमनके लिये युद्धभूमि में उतरे । शत्रुको अपनेसे बलवान् जानकर भी रणभमिमें उसका माह्वान करके उससे पराजित दोबैटना अशान्तिको ही विजयी बनानेवाला होजाता है। इस दृष्टि से अपने बलवान् शत्रुके अशान्तिजनक होनेपर भी उसके विरुद्ध संग्रामघोषणा न करके, उसले भधिक शक्तिशाली बनकर ही उसके दमनके विषय में निश्चित तथा निश्चिन्त होकर उससे विग्रह करे । अर्थात् उसका दमन करने के लिये शक्तिसंचय करने में अपनी समस्त शक्तियोंका प्रयोग करे। . पाठान्तर --- बलवान हीन न विगृह्णीयात् ।।
'हीनेन ' इस तृतीयान्त पाठके स्थानपर 'हीने न ' इस प्रकार सप्त. म्यन्त पाठ मान लेने पर “ बलवान् हीनसे विग्रह न करें " यह अर्थ होता