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चाणक्यसूत्राणि
अपनी तेजस्विता के दबाव से अपनी निर्बलताको छिपाये रखकर सन्धिका प्रस्ताव करे | तब ही सफलमनोरथ होकर आत्मरक्षा करसकता है । अमर्षशून्येन जनस्य जन्तुना न जातहार्देन न विद्विषादरः ॥ महाकवि भारवि
जब मनुष्य अमर्षशून्य और पराभवसहिष्णु होजाता है, तब यथार्थ में वह सभ्य समाजके लिये तो मर ही जाता है । तब न तो मित्रपक्ष उसका आदर करता है, और न शत्रुपक्ष | जैसे एक गरम और एक ठंडा लोहा परस्पर सन्धि नहीं कर पाते, जैसे मिश्रित होनेके लिये दोनों को नावश्यक मात्रा में उष्ण होना चाहिये, इसी प्रकार दोनोंमें आवश्यक तेजस्विता होनेपर हो सन्धि संभव है ।
यदि मनुष्य अपना तेजस्वीपन खोकर बन्दरघुडकी देना भी छोडकर सन्धि मांगेगा तो प्रतिपक्षी युद्ध ही करेगा । सब जानते हैं कि सीधी अंगुलियोंसे घी नहीं निकलता। यदि सन्धिका इच्छुक शत्रुको अपनी विवशता दिखाबैठेगा और गिडगिडाकर सन्धि मांगेगा तो उसका आखेट बने बिना नहीं रहेगा। इस प्रकार यदि सन्धि हो भी जायेगी तो वह निस्तेज पक्ष के लुण्ठनका कारण बनजायेगी ।
पाठान्तर -- नातप्तलोहं लोहेन सन्धत्ते ।
( युद्धका अवसर )
बलवान् हीनेन विगृह्णीयात् ॥ ५५ ॥
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वली राजा शत्रुको हीन पाकर ही उससे युद्ध ठाने ।
विवरण - यदि शत्रु हीन न हो तो उससे युद्ध न ठान कर उसे उपायान्तरसे नष्ट करनेवाले बौद्धिक प्रयोग करे । मनुष्य यह जाने कि बुद्धिबल भौतिकबलसे अधिक महत्ववाला होता है ।
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एकं हन्यान्न वा हन्यादिषुर्मुक्तो धनुष्मता । बुद्धिर्बुद्धिमतोत्सृष्टा हन्ति राष्ट्रं सनायकम् ॥
धनुर्धारीका मारा एक तीर अपने लक्ष्यको मारसके या न मारसके, परन्तु बुद्धिमानों की प्रयुक्त बुद्धि नायकसहित राष्ट्रका ध्वंस कर डालती है ।