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पुत्र कैसा हो ?
रहना चाहिये । यदि शिष्य लोग गुरुलोगों से उनकी पूरी ज्ञाननिधि लेलेना चाहें तो अपने ऊपर उनका मन द्रवित करनेके लिये उनके वशमें रहें तथा उन्हींका अनुसरण करें । शिष्यको ज्ञान तथा चरित्रकी दीक्षा देनेवाले गुरुका अनुसर्ता होना चाहिये ।
जैसे गोवत्स अपने बालोचित आत्मसमर्पण या प्रेमदानसे अपनी गोमाताको पचासकर उसे दूध पिलानेके लिये विवश कर लेता है, या जैसे जलार्थी मनुष्य खनित्र से खोदता - खोदता अन्तमें भूमिको जल देनेके लिये विवश करदेता है, इसीप्रकार शिष्य लोग अपनी शुश्रूषा, आराधना, अनुसारिता, समर्पण तथा समाजसेवा के उच्चादर्शसे गुरुको प्रभावित करके उसे विद्यामृत पिलानेके लिये विवश कर डालनेवाले बनें तब ही वे किसी विषय के पारंगत विद्वान् बनसकते हैं |
यथा खनन् खनित्रेण नरो वार्यधिगच्छति । तथा गुरुगतां विद्यां शुश्रूषुरधिगच्छति ॥
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दुर्विनीत दुःशील अशुश्रूषु असेवक समर्पणद्दीन लोग शिष्य होने या किसी विद्याका रहस्य पानेके योग्य नहीं होते । गुरु भी शान्त, शास्त्रज्ञ, धार्मिक, दयालु, शीलवान्, समाजसेवक विचक्षण, लोक-चरित्रज्ञ तथा प्रविभासे सम्पन्न होना चाहिये । शिष्यलोग गुरुके अगाध पांडित्य तथा उच्च चरित्र से ही प्रभावित होते हैं। ऐसे शिष्य लोग गुरुओं के वशवर्ती होकर विद्या, शील, नीति, नैपुण्य तथा ज्ञानको अनायास पाजाते हैं ।
( पुत्र कैसा हो ! )
पितृवशानुवर्ती पुत्र: ।। ३३८ ।।
पुत्रको पिताकी इच्छाका अनुवर्ती होना चाहिये ।
विवरण - पिता के समस्त अनुभव तथा उसकी सम्पत्ति चाहनेवाले
पुत्रको उसकी शुभ इच्छाओंका अनुवर्ती होकर रहना चाहिये ।