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चाणक्यसूत्राणि
मूढ लोग मिथ्याभाषणरूपी कलंकको ही सुख समझकर अनन्त दुःख-जाल-रूपी नरकम फँसे पडे रहते हैं।
विवरण- कूटसाक्षी लोग मिथ्याचारको ही अपने जीवनका सिद्धान्त बना लेते हैं।
(प्रत्येक व्यवहारका अपने ऊपर प्रभाव ) ( अधिक सूत्र ) न कश्चिन्नाशयति समुद्धरति वा । किसीके विरुद्ध या अनुकूल साक्षी देनेवाला कोई भी किसी दूसरेका नाश या उद्धार नहीं करता ।
विवरण-- मनुष्य सत्य या मिथ्याका आश्रय करके स्वयं हो अपना उद्धार या नाश कर लेता है । मनुष्य कूटसाक्षी देकर दूसरेका नाश या उद्धार नहीं करता, किन्तु अपना ही सर्वनाश कर लेता है। जिसके विरुद्ध या अनुकूल मिथ्या साक्षी दी जाती है इसका हानि-लाभ उसके अपने ही माचरणोंपर निर्भर होता है। मिथ्या साक्षीसे दूसरेका निग्रह-अनुग्रह करानेवाले वास्तव में अपना ही निग्रह-अनुग्रह कर लेते हैं। मनुष्य के सामने दूसरेकी कोई समस्या ही नहीं है। उसे ये नहीं सोचना है कि दूसरेका क्या बनेगा ? उसे तो यही सोचना है कि इस कुकर्म या सुकर्मसे मेरा क्या बनना है ? उसे तो अपनी ही दृष्टिसे अपना कर्तव्य करना चाहिये । इसीसे उसका कल्याण होना है।
(पापीको देखनेवाली प्रकृतिसे साक्षी लो ) प्रच्छन्नपापानां साक्षिणो महाभूतानि ॥ ५५२ ॥ छिपाकर किये हुए पापोंकी साक्षिता भौतिक परिस्थितिमें संलग्न रहती है।
विवरण- पापी अवश्य ही समाज की मांख बचा कर पाप करता है। समाजकी आंखोंसे चाहे पाप बचाया जा सके परन्तु प्रकृतिकी मांखोंको