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________________ पापीको देखनेवाली प्रकृति बचाकर तो पाप नहीं किया जा सकता । पाप स्वयं ही प्रकृतिके शान्त वातावरणका विरोध करता है । प्रकृतिमें कहीं न कहीं पापकी छाप लग ही जाती है । यदि पापीको दण्ड देनेवाले लोग प्राकृतिक परिस्थितिका उचित ढंग से गम्भीर निरीक्षण, परीक्षण और अध्ययन करें तो पापीके पापको प्रकाशमें ला सकते हैं और उसे अपराधी सिद्ध करके दण्ड भी दे सकते हैं । प्राकृतिक नियमोंका भंग करनेवाले पापी लोग प्रकृतिको अपना शत्रु बना लेते हैं । प्रकृति भी अपराधीपर रुष्ट हो जाती और उसका साथ देना बन्द कर देती है । प्रकृति स्वयं चाहने लगती है कि कोई सतर्क राज्यव्यवस्था हो तो मैं इस अपराधीको पकडवा दूं । प्रकृति दण्डदाताकी सदायक बन जाती है । वह दण्डदाताको केवल निमित्तमात्र बनाकर स्वयं ही पापीको दण्ड देनेके लिये उतावली हुई फिरने लगती है । प्रकृति स्वयं ही दण्डदात्री संस्था है । ५११ प्रच्छन्न पापके कुछ न कुछ भौतिक साधन और कोई न कोई भौतिक परिस्थिति होती है । पापस्थलके आसपास के पंचभूर्तीपर या कर्ताकी मुखाकृति, मुखभंगी तथा इन्द्रिय- चेष्टाभोंपर पाप-कर्मके कोई न कोई चिह्न रह जाना अनिवार्य होता है। गुप्त पापोंके स्थलोंके सूक्ष्म पाप चिह्नोंकी एक सांकेतिक लिपि होती है । मननशील गुप्तचर विभागको इस सांकेतिक लिपिका पंडित होना चाहिये । वह यदि सतर्क हो तो उसकी सूक्ष्मेक्षिकासे प्रच्छ पाप भी सुनिश्चित रूपमें पहचाने जा सकते हैं और देश में गुप्त पापोंको पूर्णतया रोका जा सकता है । परन्तु यह काम परिश्रम, अवधान तथा पूर्ण सतर्कता रखनेवाले आन्तरिक रक्षा-विभागका है । गुप्त पाप इस विभागको कर्तव्यहीनता से ही अज्ञात और अडित रहकर देशमें पापके वर्धक और प्रोत्साहक बन जाते हैं। यदि कोई राज्य व्यवस्था पापका पता न चला सकनेवाले अधिकारियोंको किसी प्रकारका दण्ड मिलनेकी व्यवस्था कर दे और अत्याचारितकी क्षतिपूर्ति राजकोष से करना नियम बना ले इस प्रकारके पाप निश्चित रूपमें देश मेंसे रोके जा सकते हैं।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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