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दूसरोंका उत्तरदायित्व स्वार्थमूलक
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कि जिससे प्रेम या विश्वासका संबन्ध जोडा जाय उसे भले प्रकार पहचान कर ही जोडना चाहिये। विचारों और स्वार्थोंकी एकता ही प्रेम है । जहाँ मतभेद और स्वार्थभेद है, वहां विश्वासघात होना अनिवार्य है।
राजधर्मके प्रसंगमें सूत्रार्थ इस प्रकार होगा- राष्ट्र के राज्याधिकारको धरोहर रूपमें अपने उत्तरदायित्वमें लेनेवाले राज्याधिकारी यदि अपनी परायी भेदबुद्धि रखते होंगे और राष्ट्रीय कार्योंको परायी धरोहरमात्र समझते होंगे तो यह निश्चित है कि वे उसमें से केवल अपना ही स्वार्थ खोजते रहेंगे और उस राज्याधिकारको भ्रष्टाचारका (अड्डा) भागार बना डालेंगे।
राष्ट्रव्यवस्था राष्ट्रकी धरोहर है । राष्ट्रके धन, प्राण तथा शान्तिकी रक्षा करना ही राष्ट्रव्यवस्थाका रूप है। राष्ट्रने इसी राष्ट्रव्यवस्थाको राजशक्तिके पास धरोहर रूपमें रखा हुभा है । यह धरोहर जिन लोगोंके पास रहती है, उनके व्यक्तिगत स्वार्थी होनेकी प्रबल संभावना रहती है। इसी संभावनाके विरुद्ध जनताको चेतावनी देना इस चाणक्यसुत्रका निगढ भाभिप्राय है । धरोहर रखनेवालोंमें वही श्रेष्ठ माना जाता है जो धरोहरको सुरक्षित रखकर उसके वास्तविक स्वामीको लौटा देने के लिये प्रत्येक समय सन्नद्ध रहे तथा धरोहरके संरक्षणमें समर्थ बने रहनेके लिये पारिश्रमिकके रूपमें अपना समाजानुमोदित प्राप्य पाता रहे । जो मूढ राज्याधिकारी धरोहरकी सुरक्षा तथा उसे उसीके स्वामीको लौटानेमें आत्मकल्याण न समझता हो यह क्षुद्र स्वार्थी कहाता है । जो दूसरेके धन अर्थात् सुरक्षित रखनेके योग्य प्रिय वस्तुको धरोहर रूपमें स्वीकार करके भी अपने स्वार्थको धरोहर रखनेवालोंके स्वार्थसे अलग समझने की भूल करता है, वह अपने क्षुद्र स्वार्थ के वशमें होकर दूसरोंके स्वार्थका घातक बनकर विश्वासघात कर बैठता है । धरोहर रखने तथा उसे स्वीकार करनेवाले दोनोंके स्वार्थोंकी एकता ही नि:स्वार्थ प्रेमका संबंध होता है । सब सबके स्वार्थको अपना ही स्वार्थ समझें इसीमें सबका यथार्थ कल्याण है। राज्याधिकारी लोग प्रजाके कल्याणमें ही अपना कल्याण देखें, राज्यव्यवस्था में अपने स्वार्थको प्रधानता न