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चाणक्यसूत्राणि
रखता है वह जहां संपूर्ण राष्ट्र के सामूहिक संगठनका शत्रु है वहां वह अपने राष्ट्रका भी शत्र ही है। जो राज्याधिकारी इस प्रकारकी क्षुद्र स्वार्थभावनासे पडौसी राष्ट्रपर आक्रमण करनेवाला बनता है वह निश्चय ही स्वभावसे लोभान्ध होकर अन्याय बुद्धि के द्वारा परराष्ट्रके ही भीतर नहीं अपने राष्ट्र के भीतर भी प्रजाके धन प्राण तथा शान्तिका अपहरण करनेवाली अन्यायी अत्याचारी भासुरी राजशक्ति बने बिना नहीं रह सकता। साम्राज्यविस्तार चाहनेवाले प्रत्येक लोभी राष्ट्रकी माभ्यन्तरिक प्रजामें भी असन्तोष तथा राजविद्रोह होना अवश्यंभावी स्थिति है । राज्याधिकार के लोभियों ने भारतभूमिको दो भागों में बांटकर पृथक सिंहासनोंपर बैठ कर अपने अपने राष्ट्रों की प्रजामें जो अशान्ति उत्पन्न करडाली है, वह तबतक नहीं जा सकती जब. तक भारत फिर प्रजाहितकारी अखण्डशक्तिमान राज्यशक्ति न बने ।
(मित्रराष्ट्र) एकान्तरितं मित्रमिष्यते ॥ ५० ॥ निकटवाले शत्रुराज्यसे अगला राज्य जिसकी हमारे शत्रुसे शत्रुता रहना स्वाभाविक है उस शत्रुके विरुद्ध, स्वभावसे ही हमारा मित्र बनजाता है।
विवरण- किसी शत्रुसे शत्रुता करनेवाले अनेक राष्ट्रोंका परस्पर मित्रताका बन्धन होना स्वाभाविक है ।
हेतुतः शत्रुभित्रे भविष्यतः॥ ५१।। शत्रु मित्र अकारण न होकर कारणवश हुआ करते हैं। विवरण- सदाचरण या उपकारसे मित्र, तथा असदाचरण या अनुप. कारसे शत्रु बन जाया करते हैं। नित्यमित्र, सहजमित्र, तथा कृत्रिममित्र तीन प्रकारके मित्र होते हैं। अकारण पाल्यपालक बन जानेवाले नित्यमित्र, कुलपरम्परासे चले मानेवाले मित्र सहजमित्र तथा प्रयोजनसे स्नेह करने. वाले कृत्रिममित्र होते हैं।