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चाणक्यसूत्राणि
प्रयोजन अनायास सिद्ध होगा। राजा मन्त्रित कार्योको बाहर निकल जानेवाले अंगोंको थोडीसी भी शंका पर झट समेट लेनेवाले कच्छपके समान गुप्त रखे । आचार्य बृहस्पति कह गये हैवालं दुष्टमसाहसिकं अज्ञातशास्त्र मन्त्रे न प्रवेशयेत् । बालक, दुष्ट, साहसहीन तथा अशास्त्रज्ञको मंत्रणामें सम्मिलित न करे। चत्वारि राशा तु महाबलेन वान्याहुः पण्डितस्तानि विद्यात् । अल्पप्रज्ञः सह मन्त्रं न कुर्यान दीर्घसूत्रैः रभसैश्चारणैश्च ।।
विदुर. महाबली राजाको जो चार बातें छोडनी हैं पण्डित उन्हें जाने- वह मल्पमतियों, दीर्घसूत्रियों, विचारशून्यों, मुंहदेखी सम्मति देनेवालों तथा चाटुकारोंसे मन्त्रणा न करे । पाठान्तर- मन्त्रसम्पदा हि राज्यं विवर्धते।
श्रेष्ठतमा मन्त्रगुप्तिमाहुः ॥२८॥ राजधर्मके आचार्य बृहस्पति, विशालाक्ष, बाहुदन्तीपुत्र, पिशुन प्रभृति विद्वान् लोग मन्त्रगुप्तिकी नीतिको अन्य सव नीतियोंका सिरमौर बता गये हैं।
विवरण- कर्तव्यमें शक्तिसंचार करनेवाली वस्तु मन्त्र ही है। राज्यकी सुरक्षा मन्त्रबल से ही होती है । शत्रुको ज्ञात होजानेसे मन्त्रका व्यर्थ होजाना ही मन्त्रका नाश है। मन्त्रका नाश शक्तिका ही नाश है। इस अर्थ मन्त्ररक्षा ही शक्तिरक्षा है । मन्त्रको सुरक्षित रखना ही शक्तिमान बनना है।
भोजराजका कहना है कि- 'मन्त्रमूलं यतो राज्यमतो मन्त्रं समाश्रयेत्' राज्यके मन्त्राश्रित होनेसे राजा श्रेष्ठ मन्त्र पानेकेलिये पूर्ण सजग रहे । बृहस्पति भी कह गये हैं- 'मूढा दुराचारास्तीक्ष्णा आत्मबुद्धयः क्षिप्रकुद्धा बाला न मन्त्रयोग्याः।' मूढ, दुराचारी, तीक्ष्णस्वभावी, मारमबुद्धि ( खुदपसन्द ) शीघ्र गरम होजानेवाले तथा बालक मन्त्रमें सम्मिलित करने योग्य नहीं होते।